श्लोक ०६-०३

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
भस्मना शुद्ध्यते कास्यं ताम्रमम्लेन शुद्ध्यति ।
रजसा शुद्ध्यते नारी नदी वेगेन शुद्ध्यति ॥ ॥३॥
कांस्य भस्म से शुद्ध होता है, ताम्र अम्ल से शुद्ध होता है; स्त्री रज से शुद्ध होती है और नदी प्रवाह से शुद्ध होती है।

शुद्धता का स्वरूप केवल बाह्य स्वच्छता या नैतिक पवित्रता तक सीमित नहीं है। शुद्धता के विविध रूप और उनके साधन, इस सूक्तिप्रकारेण, पदार्थ की प्रकृति, उसकी अवस्था और सामाजिक संकल्पनाओं के साथ जुड़कर एक व्यापक और बहुआयामी विमर्श उत्पन्न करते हैं।

कांस्य (kāsya), एक मिश्रधातु, जला हुआ राख (भस्म) लेकर अपनी मलिनता से मुक्त किया जा सकता है—यह संकेत देता है कि कुछ तत्वों की शुद्धता उनके ऊपर आरोपित कालिमा या मलिनता को विशिष्ट प्रतिक्रियात्मक माध्यम द्वारा हटाने से संभव होती है। भस्म, जो स्वयं अपवित्र नहीं मानी जाती, बल्कि पवित्र साधन रूप में प्रयुक्त होती है, शुद्धि का माध्यम बनती है। यह तत्त्वज्ञान सूचित करता है कि जो वस्तु बाहर से मलिन प्रतीत हो, वह भीतर से शुद्ध हो सकती है, और उसकी शुद्धि ऐसे तत्त्व से हो सकती है जो स्वयं भी अपारंपरिक पवित्रता का वाहक हो।

ताम्र (तांबा), अम्ल (acid) से शुद्ध होता है। यह एक रासायनिक प्रक्रिया के रूप में सुविदित है—किन्तु यहाँ उसका सांकेतिकार्थ गहन है। किसी कठोर, दृढ़ या स्थायित्वयुक्त तत्त्व को शुद्ध करने हेतु एक तीव्र, विकराल प्रक्रिया की आवश्यकता होती है। ताम्र का अम्ल से शुद्ध होना यह दर्शाता है कि स्थूल शक्ति या अधोमुखी प्रतिक्रिया से ही शुद्धि संभव नहीं—कभी-कभी संवेगात्मक विघटन ही पुनर्संरचना का द्वार होता है।

स्त्री की शुद्धता ‘रजसा’ (रजस्, अर्थात् मासिक धर्म) द्वारा बताई गई है—जो एक अत्यंत गूढ़ सामाजिक, शारीरिक और सांस्कृतिक प्रतीक है। जहाँ एक ओर सामाजिक दृष्टिकोण में यह प्रक्रिया अपवित्र मानी जाती रही है, वहीं यह श्लोक इसके ठीक विपरीत अर्थ देता है: यह स्वयं एक शुद्धिकरण प्रक्रिया है, पुनरुत्पत्ति का स्रोत है। यह कथन उस समस्त पितृसत्तात्मक दृष्टिकोण का निषेध करता है जो स्त्री शरीर को हीन या अपवित्रता का स्थान मानता रहा है। इस दृष्टिकोण में रजस् केवल जैविक प्रक्रिया नहीं, अपितु अस्तित्व की चक्रीय प्रकृति का अंग है—जो नारी के आत्मसात् और सहनशील स्वरूप को दर्शाता है।

नदी की शुद्धि वेग (प्रवाह) से होती है। नदी जब गतिशील होती है, बहती रहती है, तब वह शुद्ध रहती है; जब रुक जाती है, तब उसमें सड़न आरंभ होती है। यह एक स्पष्ट रूपक है जीवन के लिए—स्थिरता मृत्यु का प्रतीक है, गति जीवन का। केवल नदी ही नहीं, मनुष्य भी तभी शुद्ध और उन्नत होता है जब वह प्रवाह में रहता है—विचार, कर्म, ज्ञान—इन सभी का निरंतर प्रवाह ही आत्मशुद्धि का माध्यम बनता है।

इन चतुर्विध दृष्टान्तों के माध्यम से यह प्रतिपादन होता है कि प्रत्येक वस्तु की शुद्धता का मार्ग उसकी स्वभावगत प्रवृत्ति और उसके संलग्न कार्यकारण-संकेतों पर निर्भर करता है। कोई सार्वभौमिक शुद्धता-मापदण्ड नहीं; अपितु पदार्थ, व्यक्ति और अवस्था के अनुरूप ही उचित उपाय और दृष्टिकोण आवश्यक हैं। यही विवेक ही जीवन की वास्तविक नीतिसंपन्नता का आधार है।