श्लोक ०६-०५

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
यस्यार्थास्तस्य मित्राणि यस्यार्थास्तस्य बान्धवाः ।
यस्यार्थाः स पुमाँल्लोके यस्यार्थाः स च पण्डितः ॥ ॥५॥
जिसके पास अर्थ है, उसी के मित्र होते हैं; जिसके पास अर्थ है, वही बंधु कहलाते हैं। जिसके पास अर्थ है, वही इस लोक में पुरुष है; जिसके पास अर्थ है, वही पण्डित भी है।

यह विचार मानव समाज में अर्थ (धन, संसाधन, साधन) की केन्द्रीय भूमिका को उद्घाटित करता है। अर्थ केवल व्यापार या विनिमय का माध्यम नहीं, बल्कि संबंधों, प्रतिष्ठा, और सामाजिक पहचान का निर्णायक तत्त्व बनता है। यह केवल सामाजिक यथार्थ का वर्णन नहीं करता, बल्कि मूल्यबोध के क्षरण की ओर संकेत करता है, जहाँ संबंधों की आत्मीयता और बौद्धिकता का स्थान अब उपयोगिता और स्वार्थपरकता ने ले लिया है।

मित्रता का विचार सामान्यतः स्नेह, सहयोग, और समान दृष्टिकोण पर आधारित माना जाता है। परन्तु जब किसी व्यक्ति का 'अर्थ'—यानी संसाधन या प्रभाव—उसके मित्रों की संख्या या गुणवत्ता का निर्धारण करता है, तब मित्रता स्वयं एक साधन बन जाती है, साध्य नहीं। यही बात बन्धुत्व पर भी लागू होती है—जो परम्परागत रूप से जन्मसिद्ध संबंध होते हैं, वे भी अर्थ के समक्ष झुक जाते हैं।

इससे एक सामाजिक विडम्बना स्पष्ट होती है—धनिक ही पुरुषत्व का प्रतीक है, और वही ज्ञानी माना जाता है। इसका तात्पर्य यह नहीं कि वास्तविक पांडित्य या नैतिक पुरुषत्व अर्थ से उत्पन्न होता है, बल्कि यह सामाजिक दृष्टिकोण की ओर इशारा करता है जो धनसंपन्नता को ही पुरुषत्व और पांडित्य की कसौटी मानता है। यह केवल भौतिक दृष्टिकोण की आलोचना नहीं, बल्कि यह प्रश्न भी खड़ा करता है: क्या समाज ने अपनी मूल मान्यताओं का विसर्जन कर दिया है? क्या बौद्धिकता, चारित्र्यबल और आत्मीयता जैसी अवधारणाएँ अब केवल उन लोगों के लिए आरक्षित हैं जिनके पास साधन हैं?

यह स्थिति मूल्यविहीन आधुनिकता की ओर संकेत करती है, जहाँ विचार, भाव और आचरण की गहराई धन की छाया में विलीन हो जाती है। इस अवधारणा को नैतिकता और सामाजिक न्याय के प्रश्नों के साथ जोड़ा जा सकता है—क्या समाज केवल उसी को मान्यता देगा जिसके पास संसाधन हैं? यदि हाँ, तो साधनहीन व्यक्ति का अस्तित्व, उसका पुरुषत्व, और उसकी विद्वता किस मूल्य पर आंकी जाएगी?

यह केवल आलोचना नहीं, अपितु आत्मचिन्तन का भी आह्वान है—किसे हम मित्र मानते हैं? किसे हम 'पुरुष' या 'पंडित' की उपाधि देते हैं? क्या यह निर्णय हमारे मन के निर्मल विवेक से होता है, या केवल सामाजिक बाह्यताओं से प्रेरित है?

इस विवेचना का अंतिम प्रश्न यह हो सकता है—जब समाज की चेतना ही अर्थकेंद्रित हो जाए, तब क्या उसके नैतिक आधार शेष रह पाते हैं? अथवा वह केवल बाह्य सम्पदा की गति में स्वयं को ही विस्मृत कर देता है?