श्लोक ०६-२१

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
सुश्रान्तोऽपि वहेद्भारं शीतोष्णं न च पश्यति ।
सन्तुष्टश्चरते नित्यं त्रीणि शिक्षेच्च गर्दभात् ॥ ०६-२१
अति श्रान्तः अपि व्यक्ति भार वहन करता है, चाहे वह शीत (ठंडा) हो या ऊष्मा (गर्म), किन्तु उसे उनकी अनुभूति नहीं होती। जो व्यक्ति संतुष्ट रहता है, वह दिन-प्रतिदिन तीन प्रकार की शिक्षा प्राप्त करता है, जो गधे की शिक्षा के समान है।

यह श्लोक व्यक्ति के भौतिक थकावट और मानसिक संतोष के संबंध को दर्शाता है। 'सुश्रान्तः अपि वहति भारं' का अर्थ है कि अत्यधिक श्रम या प्रयास करने वाला व्यक्ति, चाहे वह शीतलता हो या उष्मा, उसका भान नहीं करता; अर्थात् उसकी संवेदनशीलता और परिस्थिति का अनुभव कमजोर हो जाता है। यह शारीरिक परिश्रम की वह स्थिति है जहां व्यक्ति अपने शरीर की पीड़ा या सहजता का ध्यान नहीं रख पाता।

इसके विपरीत, 'सन्तुष्टः चरति नित्यम्' से यह सूचित होता है कि जो व्यक्ति संतोषी होता है, वह निरंतर एक स्थिर मानसिक स्थिति में रहता है और उसका मन संतुष्ट रहता है। इस संतोष की अवस्था में वह 'तीन शिक्षाएँ' प्राप्त करता है, जो 'गर्दभात्' अर्थात गधे की शिक्षा के समान बताई गई हैं। यहाँ गधे की शिक्षा का प्रयोग उपमात्मक अर्थ में किया गया है, जो मूर्खता या अकर्मण्यता की ओर संकेत कर सकती है।

तीन शिक्षाएँ, जिनका उल्लेख हुआ है, संभवतः वे ज्ञान, अनुभव या कर्म के तीन पहलू हो सकते हैं, जो साधक को निरंतर प्राप्त होते हैं। किंतु यहाँ संतुष्ट व्यक्ति की स्थिति एक विरोधाभास प्रस्तुत करती है: संतुष्टि के कारण वह सीखने की आवश्यकता को कम करता है, या वह उन शिक्षाओं को महत्वहीन समझता है जैसे गधा जो सीख नहीं पाता।

शास्त्रीय दृष्टिकोण से, यह श्लोक मनुष्य के शरीर-मन संबंध की जटिलताओं को इंगित करता है, जहां अति श्रम से शारीरिक संवेदना मंद पड़ जाती है, और मानसिक संतोष कभी-कभी ज्ञानार्जन और सतत सुधार की क्षमता को बाधित करता है। यह अध्ययन योग्य है कि कैसे संतोष और श्रम के मध्य सन्तुलन स्थापित किया जाए जिससे व्यक्ति अपने विकास के मार्ग पर सन्तुलित रूप से अग्रसर हो।

यह विचार विख्यात नीति ग्रंथों में मनुष्य के स्वभाव, कर्म और मानसिक अवस्था की सूक्ष्म विवेचना का उदाहरण है, जो आज भी व्यक्तिगत विकास, मनोविज्ञान और नेतृत्व के क्षेत्र में उपयोगी सिद्ध होता है।