स्वयमाक्रम्य भुक्तं च शिक्षेच्चत्वारि कुक्कुटात् ॥ ६-१८॥
यह श्लोक सामाजिक और राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में संघर्ष और उसके प्रकारों का सूक्ष्म विवेचन प्रस्तुत करता है। श्लोक में 'प्रत्युत्थानं' शब्द से सूचित होता है कोई विरोधाभास, विद्रोह या विद्रोह का स्वरूप, जो किसी स्थिति में उत्पन्न होता है। 'युद्धं' शब्द स्पष्टतः प्रत्यक्ष संघर्ष या युद्ध को निर्दिष्ट करता है, जो संगठित, योजनाबद्ध और भौतिक लड़ाई होती है। 'संविभागं च बन्धुषु'—यह वाक्यांश संघर्ष के भीतर भी बन्धुजन या सहयोगी समूहों में विभाजन को सूचित करता है, जो अस्थिरता और भ्रांतियों का कारण बनता है।
यह स्थिति समाज, समूह, या परिवार में आंतरिक संघर्ष, विरोधाभास और युद्ध जैसी स्थिति के बीच के बारीक अंतर और संयुक्त प्रभाव को इंगित करती है। 'स्वयमाक्रम्य भुक्तं' से तात्पर्य है कि संघर्ष में खुद आक्रमण करना तथा उसी के परिणामस्वरूप व्यथित होना भी होता है। इसे मनोवैज्ञानिक और व्यवहारिक संघर्ष के दो पहलू के रूप में देखा जा सकता है—जहाँ आक्रमणकारी भी अंततः स्वयं को हानि पहुँचाता है।
अन्त में, 'शिक्षेच्चत्वारि कुक्कुटात्' वाक्यांश में, कुक्कुट अर्थात् मुर्गी के चार प्रकार की सजा का उल्लेख है, जो प्राचीन भारतीय शास्त्रों में दंडप्रणाली के रूपक के रूप में प्रयुक्त होता है। ये चार प्रकार के दंड सामाजिक अनुशासन, अपराधों के प्रति उचित प्रतिक्रिया और न्यायिक व्यवस्था के सन्दर्भ में दार्शनिक दृष्टि प्रस्तुत करते हैं।
इस प्रकार, यह श्लोक युद्ध, विद्रोह और आंतरिक कलह के विभिन्न स्वरूपों का एक समेकित दार्शनिक विवेचन करता है, जो सामाजिक और राजनीतिक संरचनाओं के विवेकपूर्ण प्रबंधन के लिए महत्वपूर्ण है। संघर्ष केवल बाह्य नहीं, आंतरिक भी हो सकता है, तथा उसके विभिन्न रूप समाज के जीवन में गहन प्रभाव डालते हैं।