समदुःखसुखः शान्तः तत्त्वज्ञः साधुरुच्यते ॥ ॥१७॥
साधु का अर्थ केवल कोई बाह्य वेशधारी या सामाजिक रूप से धर्मपालक व्यक्ति नहीं होता; साधुता एक मानसिक, आत्मिक और दार्शनिक स्थिति है। यह श्लोक उस आन्तरिक संरचना को उकेरता है जो किसी को साधु बनाती है — न कि बाह्याचार या समाज द्वारा आरोपित छवि।
प्रथम अंश — "इन्द्रियाणि च संयम्य" — यह उस बिन्दु को स्पर्श करता है जहाँ जीवन की संपूर्ण दिशा निर्धारित होती है। इन्द्रिय-संयम का अर्थ केवल इन्द्रिय-विकारों से निवृत्ति नहीं, अपितु चेतना का उर्ध्वगमन है। जिनके इन्द्रियाँ विषयों के वश में नहीं हैं, वे ही आत्मविज्ञान की ओर अग्रसर हो सकते हैं। यह संयम, भीतर की स्वाधीनता है; इन्द्रियों पर शासन करनेवाला व्यक्ति ही अपने प्रज्ञा के पथ पर अग्रसर हो सकता है।
द्वितीय अंश — "रागद्वेषविवर्जितः" — राग और द्वेष, दोनों मानसिकता के परस्परविपरीत किन्तु समान रूप से बन्धनात्मक रूप हैं। राग हमें आकर्षित करता है, और द्वेष हमें विकर्षित करता है; दोनों ही स्थितियों में आत्मा वस्तुओं की गुलाम बन जाती है। इनसे मुक्त व्यक्ति ही वास्तविक 'स्वतन्त्र' होता है।
तृतीय अंश — "समदुःखसुखः" — यह समत्व उस चित्त की निशानी है जो अनुभूतियों के उतार-चढ़ाव से अप्रभावित रहता है। सुख में अहंकार नहीं, दुःख में अवसाद नहीं; यह स्थिरता साधुत्व की आधारभूमि है। इसका अर्थ जीवन की त्रासदियों को नकारना नहीं, बल्कि उन्हें गहराई से स्वीकारते हुए अपने चित्त की निर्मलता बनाए रखना है।
चतुर्थ अंश — "शान्तः" — यह केवल मौन रहनेवाले या किसी पर्वत पर ध्यानस्थ व्यक्ति की बात नहीं करता, अपितु उस भीतरी चित्तशान्ति की ओर संकेत करता है जो संसार के कोलाहल में भी अक्षुण्ण रहती है। यह शान्ति विवेक की परिपक्वता से आती है — और न किसी विशेष विधि से, न किसी बाह्य नियन्त्रण से।
पञ्चम अंश — "तत्त्वज्ञः" — तत्त्व का ज्ञान वही प्राप्त कर सकता है जो पूर्ववर्ती गुणों में सिद्ध हो। तत्त्वज्ञान न केवल पारमार्थिक सत्य की अनुभूति है, अपितु जीवन के प्रत्येक क्षण में सत्य और मोह के बीच के सूक्ष्म अन्तर को पहचानने की क्षमता है। तत्त्वज्ञ वह है जो मिथ्या को अस्वीकार कर आत्मतत्त्व में स्थित होता है।
अन्तिम संज्ञा — "साधुः उच्यते" — यह साधु के अर्थ को परिभाषित करता है, न कि केवल उसका उपनाम देता है। 'साधु' वह है जो ऊपर वर्णित प्रत्येक स्थिति को साध ले — संयम, निरपेक्षता, समत्व, शान्ति, तथा तत्त्वज्ञान। यह साधुता केवल साधनात्मक नहीं, अपितु आत्मगत उपलब्धि है।
प्रश्न उपस्थित होता है — क्या साधु होना विरक्त होना है? नहीं। यह लोकत्याग नहीं, अपितु लोकरागत्याग है। यह संसार से पलायन नहीं, अपितु संसार में रहते हुए विकारों से पलायन है। साधुता कोई अन्तिम उपलब्धि नहीं, अपितु निरन्तर चलनेवाली साधना है — आत्मसंघर्ष की दीर्घ यात्रा।