श्लोक ०६-१६

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
प्रभूतं कार्यमल्पं वा यन्नरः कर्तुमिच्छति ।
सर्वारम्भेण तत्कार्यं सिंहादेकं प्रचक्षते ॥ ॥१६॥
मनुष्य जो कार्य करना चाहता है — चाहे वह बड़ा हो या छोटा — उसे वह कार्य आरम्भ से ही पूरी शक्ति के साथ करना चाहिए; इसे सिंह से सीखने की बात कही गई है।

जीवन में प्रत्येक कार्य के साथ एक प्रकार का मनोवैज्ञानिक संवाद जुड़ा होता है। हम केवल बाह्य कर्म नहीं करते — हम अपने भीतर के संकल्प, संदेह, सामर्थ्य, और भय के साथ भी सतत संलाप करते हैं। इस संवाद का प्रभाव हमारे प्रयास की तीव्रता और दिशा दोनों पर पड़ता है। यः दृष्टिकोण कि ‘यह कार्य तो छोटा है’, 'इसमें अधिक प्रयास की आवश्यकता नहीं', या 'बड़े कामों के लिए अधिक ऊर्जा बचाकर रखनी चाहिए', एक प्रकार की आत्मवंचना है जो धीरे-धीरे हमारी चेतना की तीव्रता को क्षीण कर देती है।

सिंह का आचरण इस भ्रान्ति को तोड़ता है। वह चाहे खरगोश का शिकार करे या हाथी का, उसी पूर्णतया समर्पित शक्ति और सजगता से कूद पड़ता है। यह दृष्टिकोण न केवल उसके प्रत्येक प्रयास को सफल बनाता है, बल्कि उसकी अंतःप्रेरणा को भी सजीव रखता है। प्रत्येक कार्य, चाहे वह बाह्य रूप से छोटा हो या बड़ा, भीतर की सम्पूर्णता की माँग करता है।

यदि मनुष्य यह भेद करना प्रारम्भ कर दे कि किन कार्यों में पूर्ण समर्पण देना है और किनमें नहीं, तो उसकी प्रवृत्ति आलस्य और असावधानी की ओर अग्रसर होती है। यह मानसिक द्वैत उसके आत्मबल को नष्ट कर देता है। इसके विपरीत, जब प्रत्येक कार्य को ‘पूर्ण प्रयास’ की दृष्टि से देखा जाता है, तब वह केवल लक्ष्यपूर्ति का साधन नहीं रहता, वह स्वयं साधना बन जाता है।

यह सिद्धान्त केवल भौतिक प्रयास तक सीमित नहीं है, यह जीवनदृष्टि को स्पर्श करता है। यदि व्यक्ति का मन निरन्तर ‘पूरा देने’ का अभ्यस्त हो जाए — तो उसका व्यक्तित्व एक अद्वितीय चमक ग्रहण करता है। वह लघुतम क्रियाओं में भी गौरव का अनुभव करता है, और महत्तम कार्यों में भी अहंकाररहित रह सकता है, क्योंकि उसकी दृष्टि बाह्य मापदण्डों से हटकर भीतरी पूर्णता पर केन्द्रित हो जाती है।

इसमें एक महत्वपूर्ण बिन्दु यह भी है कि शक्ति का उपयोग केवल ‘परिणाम’ के लिए नहीं होता — वह स्वयं एक नैतिक अनुशासन का अंग है। यदि मनुष्य जानबूझकर आधा प्रयास करता है, केवल इसलिए कि लक्ष्य उसे तुच्छ प्रतीत होता है, तो वह स्वयं अपनी क्षमता के प्रति बेईमानी करता है। शक्ति का उपयोग आंशिक रूप से करना भी एक प्रकार का आन्तरिक भ्रष्टाचार है।

एक गहरे अर्थ में, यह सूत्र यह भी उद्घाटित करता है कि कार्य का मूल्य उसका परिमाण नहीं, उसमें झोंकी गई चेतना द्वारा मापा जाना चाहिए। यही कारण है कि किसी छोटे से कर्म में भी यदि संपूर्णता हो, तो वह साधक को भीतर से शुद्ध कर सकता है।

सिंह की यह शिक्षा केवल साहस नहीं है; यह कार्य के प्रति श्रद्धा का प्रतीक है। जब मनुष्य प्रत्येक कार्य में श्रद्धा रखता है, तो वह जीवन के प्रति ही एक भक्तिपूर्ण दृष्टि विकसित करता है। और यही दृष्टि उसे उस बिन्दु तक पहुँचाती है जहाँ प्रत्येक कर्म तप बन जाता है।