श्रुत्वा ज्ञानमवाप्नोति श्रुत्वा मोक्षमवाप्नुयात् ॥ ०६-०१
मानव का अनुभवबोध केवल दृष्ट या प्रत्यक्ष ज्ञान पर आधारित नहीं होता—संवेदना, श्रद्धा, परम्परा और श्रवण भी बोध की समानतः प्रबल स्रोत हैं। यहाँ 'श्रवण' या 'श्रुति' की महत्ता का निरूपण केवल आध्यात्मिक या धार्मिक सन्दर्भ में नहीं, अपितु बौद्धिक, नैतिक और मुक्ति-केन्द्रित अनुशासन के रूप में किया गया है। 'श्रुत्वा'—यह ध्वनि या शब्द का श्रवण नहीं, अपितु अर्थग्रहण से युक्त ज्ञानात्मक क्रिया है। इस क्रिया से धर्म—जो केवल विधि-निषेध का संकलन नहीं, अपितु जीवन के सर्वसमग्र मूल्यविधान का सूचक है—का ज्ञान संभव होता है।
दुर्बुद्धि का परित्याग केवल अनुभव या दण्ड से नहीं होता; वह विवेक से होता है, और विवेक का बीज श्रवण में निहित होता है। 'श्रुत्वा त्यजति दुर्मतिम्'—यह परिवर्तन का संकेतक है, जो बाह्य घटना से नहीं, भीतरी रूपान्तरण से घटित होता है। श्रोता के भीतर जो शेष रहता है, वही व्यवहार में फलित होता है। यही कारण है कि ज्ञान भी 'श्रुत्वा' से प्राप्त होता है—न केवल सुनना, बल्कि सुनकर आत्मसात करना, आलोचना करना, और अन्ततः उसे अपने अन्तर में पचाना।
अन्ततः 'श्रुत्वा मोक्षमवाप्नुयात्'—यह उक्ति केवल आध्यात्मिक मोक्ष का सन्दर्भ नहीं देती, अपितु बन्धनों, भ्रमों, असत्य पहचानों और मिथ्या चित्तधाराओं से मुक्ति का मार्ग भी दर्शाती है। ज्ञान की अंतिम परिणति यदि मुक्ति में न हो, तो वह केवल एक बोझ हो सकता है। इस श्लोक का गूढ़ार्थ यह है कि श्रवण ही वह चित्तप्रवृत्ति है, जो मनुष्य को अपने ही सीमित संसार से बाहर निकाल कर एक ऐसे आयाम की ओर ले जाती है, जहाँ से वह न केवल देख सकता है, बल्कि समझ सकता है।
यह श्रवण मात्र शब्दों का संकलन नहीं है, न ही रटंत अभ्यास; यह एक अन्तःप्रक्रिया है, जिसमें श्रोता का मन, बुद्धि और आत्मा एकात्म होकर कुछ ऐसा अनुभव करते हैं, जो परिवर्तनकारी है। जो सुनता है, वह जानता है; जो जानता है, वह बदलता है; जो बदलता है, वह मुक्त हो सकता है। यह श्रवण, ज्ञान और मोक्ष की एक त्रयी है—एक ऐसी श्रेणी जो आन्तरिक अनुशासन, बुद्धिविवेक और चित्तशुद्धि से होती हुई अन्तिम शान्ति तक ले जाती है।