श्लोक ०५-२३

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
राजपत्नी गुरोः पत्नी मित्रपत्नी तथैव च ।
पत्नीमाता स्वमाता च पञ्चैता मातरः स्मृताः ॥ ॥२३॥
राजपत्नी, गुरु की पत्नी, मित्र की पत्नी, पत्नी की माता और अपनी माता — ये पाँच माताएं मानी गई हैं।
मातृत्व की अवधारणा, सामान्यतया जैविक सम्बन्धों तक सीमित मानी जाती है। परन्तु सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में, विशेषतः भारतीय दर्शन और सामाजिक व्यवस्था में, यह संकल्पना अधिक व्यापक और नैतिक दायित्वों से युक्त होती है। यह श्लोक पाँच प्रकार की स्त्रियों को 'माता' के रूप में स्मृत करता है — केवल सामाजिक औपचारिकता के कारण नहीं, अपितु इन सम्बन्धों के पीछे निहित नैतिक और आध्यात्मिक दायित्वों के कारण। राजपत्नी, अर्थात् राष्ट्राध्यक्ष की पत्नी, केवल राजनीतिक पद से सम्बद्ध नहीं होती; वह सम्पूर्ण प्रजा की ‘मातृस्वरूपा’ होती है। वह प्रजाजन के प्रति करुणा, सेवा, और लोकहित की भावना में सहभागी होती है। इसी कारण, उसे माता के समान सम्मान प्रदान किया जाना चाहिए — उसकी आलोचना अथवा अपमान, राष्ट्र की मर्यादा को भंग कर सकता है। गुरु की पत्नी को 'गुरुपत्नी' के रूप में माता के तुल्य मानना शास्त्रीय व्यवस्था का मूलतत्त्व रहा है। गुरु के आश्रम में विद्यार्थी केवल ज्ञान ही नहीं प्राप्त करता, अपितु शील, सेवा, अनुशासन और सामाजिक आचरण की भी दीक्षा ग्रहण करता है। ऐसी स्थिति में, गुरुपत्नी केवल गुरु की पत्नी न होकर विद्यार्थियों के लिए सहश्रद्धा का केन्द्र होती है — उनकी सेवा, मार्गदर्शन और देखभाल से शिष्य का सम्यक् विकास होता है। मित्र की पत्नी, यद्यपि प्रत्यक्ष रूप से कोई रक्तसंबंध नहीं है, किन्तु यदि मित्र को आत्मीय माना जाता है, तो उसकी पत्नी भी उस आत्मीयता की सीमा में आती है। उसे भी माता के समान मर्यादा देना, मित्रता की पवित्रता और सामाजिक शुद्धता का एक आवश्यक अंग बनता है। यह विचार पारिवारिक सीमाओं से बाहर भी नैतिक मर्यादा की आवश्यकता को रेखांकित करता है। पत्नी की माता, जो प्रायः 'श्वशुरघर' की सत्ता में आती है, उसे भी मातृत्व का स्थान देना, न केवल पारिवारिक सौहार्द की दृष्टि से आवश्यक है, बल्कि यह यह इंगित करता है कि विवाह केवल दो व्यक्तियों का सम्बन्ध नहीं, अपितु दो कुलों का मिलन है। इस सम्बन्ध में, पत्नी के माता-पिता के प्रति भी वही श्रद्धा अपेक्षित है, जो अपने माता-पिता के प्रति होती है। और अन्ततः, अपनी जन्मदात्री माता — जिसके उपकारों का कोई प्रतिदान नहीं हो सकता। उसकी उपस्थिति सभी मातृस्वरूपाओं की आदर्श है। शेष सभी मातृत्ववाचक सम्बन्ध उसी मूल मातृत्व से अनुप्राणित होते हैं। यह धारणा कि पाँच प्रकार की स्त्रियाँ मातृवत् हैं, समाज को नैतिक अनुशासन, यौनिक संयम, और भावनात्मक संतुलन प्रदान करती है। यह व्यक्ति की दृष्टि को केवल रक्त सम्बन्धों तक सीमित नहीं रहने देती, बल्कि समाज को एक विस्तृत, उत्तरदायित्वपूर्ण पारिवारिक ढाँचे के रूप में देखने की प्रेरणा देती है। यदि प्रत्येक व्यक्ति इन स्त्रियों को मातृभाव से देखे, तो न केवल परिवार, बल्कि समस्त सामाजिक संरचना भी पवित्रता, मर्यादा और करुणा पर आधारित होगी।