श्लोक ०५-२२

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
जनिता चोपनेता च यस्तु विद्यां प्रयच्छति ।
अन्नदाता भयत्राता पञ्चैते पितरः स्मृताः ॥ ॥२२॥
जनक, उपनीयनकर्ता, जो विद्यादान करता है, अन्नदाता और भय से रक्षक — ये पाँच पितृ माने गए हैं।

‘पितृ’ का सामान्य अर्थ केवल शरीरधारक जनक तक सीमित नहीं रहता। सांस्कृतिक विमर्श में यह शब्द बहुस्तरीय उत्तरदायित्वों, संरक्षकों और आत्मविकास हेतु अवसरदाताओं के लिए प्रयुक्त होता है। इस विचार में जैविक उत्पत्ति का स्थान तो है, परन्तु वही सब कुछ नहीं। जब कोई किसी के जीवन को केवल जन्म देकर नहीं, अपितु उसे संकल्प, ज्ञान, पोषण और सुरक्षा द्वारा भी रूप देता है, तब वह पितृत्त्व का अधिकारी होता है।

यहाँ पाँच प्रकार के 'पितर' चिन्हित किए गए हैं: जनक — जो शारीरिक जन्म देता है; उपनीयनकर्ता — जो आध्यात्मिक, सांस्कृतिक या शैक्षिक यात्रा में प्रवेश कराता है; विद्यादाता — जो ज्ञान देता है और चेतना को विस्तृत करता है; अन्नदाता — जो जीवन-निर्वाह का आधार उपलब्ध कराता है; और भयरक्षक — जो संकटों से सुरक्षा देता है। ये सभी व्यक्ति किसी भी बालक या युवा की निर्माण प्रक्रिया के स्तम्भ होते हैं।

यह वर्गीकरण समाज की संरचना को ही नहीं, उस उत्तरदायित्वबोध को भी प्रकट करता है, जो किसी के पालन-पोषण से जुड़ा है। कोई केवल जनक बनकर अपने कर्तव्य से मुक्त नहीं हो सकता — यदि वह भय के समय साथ न खड़ा हो, यदि वह अन्न, सुरक्षा, शिक्षा या दिशा न दे, तो उसके पितृत्त्व में शून्यता है। इसी प्रकार, कोई शिक्षक, आचार्य, संरक्षक या रक्षक, यदि किसी के जीवन में उपर्युक्त भूमिकाएं निभाता है, तो वह भी पितृवत् पूजनीय होता है।

यह विचार भारतीय मनःसंस्कार में न केवल पारिवारिक दायरे को विस्तृत करता है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि पितृत्त्व कोई जन्मजात अधिकार नहीं, अपितु अर्जित मर्यादा है। व्यक्ति समाज में किन-किन भूमिकाओं को स्वीकार करता है, और उनका किस प्रकार निर्वहन करता है, यही उसे किसी के लिए पितर बनाता है। यह विशेषतः उन सम्बन्धों को भी स्थान देता है जो रक्त से नहीं, व्यवहार और कर्तव्य से गठित होते हैं।

यह दृष्टिकोण माता-पिता की मर्यादा के साथ-साथ, गुरुओं, शिक्षकों, अन्नदाता कृषि एवं सेवा क्षेत्र के व्यक्तियों, सैनिकों, रक्षकों, अभिभावकों तथा समाज में उन सभी व्यक्तियों को भी सम्मानित करता है, जिन्होंने किसी के जीवन में रचनात्मक भूमिका निभाई हो। इस अर्थ में, यह परिभाषा कर्मपरक है, न कि केवल जन्मगत।

इस विचार की सामाजिक-दार्शनिक महत्ता यही है कि यह व्यक्ति को अपने कर्तव्यों की ओर उन्मुख करती है — यदि वह पितृत्त्व की उपाधि चाहता है, तो उसे किसी न किसी की शिक्षा, संरक्षण, पोषण अथवा दिशा में योगदान देना होगा। यह दर्शन सम्मान को अधिकार के स्थान पर कर्तव्य के आधार पर देता है।

इससे यह प्रश्न भी उत्पन्न होता है — क्या किसी समाज में केवल जन्म देनेवालों को ही सर्वोच्च स्थान मिलना चाहिए, या उन सभी को भी, जो जीवन को पोषित करते हैं? यह श्लोक दूसरी दिशा की ओर संकेत करता है: अधिकार नहीं, उत्तरदायित्व ही आदर का मूलाधार है।