चतुष्पादं शृगालस्तु स्त्रीणां धूर्ता च मालिनी ॥ ॥२१॥
सामाजिक आचारधर्म और व्यवहारशास्त्र का एक पक्ष यह भी है जिसमें लौकिक अनुभवों के आधार पर विशिष्ट प्रकार की प्रवृत्तियों और व्यक्तियों के व्यवहार को विश्लेषित किया जाता है। यहाँ पर यह विश्लेषण सीधे रूप से प्रतीकात्मक वर्गों को लक्ष्य करता है — जो स्वयं में विचारोत्तेजक है। यह वर्गीकरण चार भिन्न सामाजिक/प्राकृतिक समूहों को प्रस्तुत करता है: मनुष्य, पक्षी, चौपायें और स्त्रियाँ।
प्रथम समूह — मनुष्य। इसमें 'नाई' को धूर्त कहा गया है। पारम्परिक सामाजिक संरचना में नाई न केवल शेविंग और कटिंग तक सीमित था, अपितु वह गाँव या समाज का एक प्रकार का सूचनावाहक, गुप्तचरों के तुल्य व्यक्ति भी होता था — प्रत्येक गृहस्थ के भीतर जाकर वार्तालाप में सम्मिलित होने वाला, विवाहादि कार्यों में मध्यस्थ बनने वाला, और बहुत बार गोपनीय बातें जाननेवाला। यह सामर्थ्य उसे अवसर भी देता था छल-प्रपञ्च या स्वार्थसिद्धि हेतु — जिससे उसका 'धूर्तता' से संबद्ध होना एक सामुदायिक अनुभव बन गया।
द्वितीय समूह — पक्षी। कौआ को चतुर, चालाक, चपल, और अवसरवादी माना जाता रहा है। वह परिश्रम न कर, परोपजीवी रूप में भोजन प्राप्त करता है, तीव्रता से उड़ता है, और चोरी या तिकड़मों से वस्तुओं को प्राप्त करने की चेष्टा करता है। इन गुणों को पारंपरिक दृष्टि से 'धूर्तता' के रूप में ही देखा गया।
तृतीय — चौपायों में गीदड़। गीदड़ का प्रचलित छवि है — छाया में विचरने वाला, समूह में चलने वाला, पराक्रम से नहीं किंतु छल से कार्य करने वाला। इसकी प्रकृति भयभीत और कपटी मानी जाती रही है, विशेषतः सिंह जैसे प्राणियों के साथ कथा-संयोजन के कारण, जहाँ गीदड़ स्वयं का कार्य न कर किसी और के द्वारा शिकार करवाकर भागीदारी करता है।
चतुर्थ — स्त्रियों में मालिनी अर्थात् पुष्पविक्रेता स्त्री। यह वर्गीकरण अत्यंत सूक्ष्म है। मालिन की भूमिका विशेषतः उत्सव, पूजा, या प्रसाधन में जुड़ी होती है, जहाँ उसका व्यवहार, वार्ता, और सौन्दर्यशास्त्र से सम्बद्ध वाणिज्य होता है। ऐसे क्षेत्र में उसकी दक्षता और सामाजिक कौशल उसे 'प्रभावित करने' की क्षमता देती है — यही बौद्धिक या सामाजिक 'धूर्तता' के रूप में देखी जाती रही है। किंतु यह वर्गीकरण स्त्री-प्रतिनिधित्व को एक सीमित फ्रेम में बाँधता है, और आलोचनात्मक मूल्यांकन की भी माँग करता है — विशेषतः आधुनिक दृष्टिकोण से।
इस श्लोक का प्रयोजन केवल बाह्य व्यावहारिक निरीक्षण प्रस्तुत करना नहीं, अपितु यह संकेत देना भी है कि किन सामाजिक भूमिकाओं में धूर्तता स्वाभाविकतः उत्पन्न हो सकती है, जहाँ अवसर, प्रवृत्ति, और परिप्रेक्ष्य तदनुकूल हो। यह भी विचारणीय है कि धूर्तता यहाँ केवल नकारात्मक नहीं, अपितु चतुराई और युक्तिसम्पन्नता के निकट भी स्थित है। इस प्रकार, यह केवल नैतिक मूल्यनिर्णय नहीं, एक सामाजिक दृष्टि है — जो व्यवहारिक ज्ञान के रूप में सामने आती है।
यह प्रश्न प्रेरित करता है: क्या धूर्तता सदैव निंदनीय है? या वह किसी जटिल सामाजिक व्यवस्था में जीवित रहने का उपकरण है? क्या 'धूर्तता' केवल छल है, या वह स्थितिसापेक्ष विवेक भी हो सकता है? और, क्या इस प्रकार का वर्गीकरण — यद्यपि पारंपरिक — समयानुकूल पुनर्परिशीलन की आवश्यकता रखता है?