श्लोक ०५-२०

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
चला लक्ष्मीश्चलाः प्राणाश्चले जीवितमन्दिरे ।
चलाचले च संसारे धर्म एको हि निश्चलः ॥ ॥२०॥
लक्ष्मी चंचला है, प्राण चंचल हैं, जीवनमन्दिर भी चंचल है। इस चंचल-अचंचल संसार में केवल धर्म ही स्थिर है।

स्थायित्व की खोज प्रत्येक चेतन के लिए एक मौलिक आवश्यकता है, किन्तु संसार का स्वभाव ही परिवर्तनशीलता है। धन — जिसे लक्ष्मी कहा गया — कभी किसी के पास नहीं टिकता, उसकी प्रवृत्ति स्वाभाविक रूप से चंचल है। प्राण — जो जीवन की ऊर्जा है — निरंतर गति में रहते हैं, क्षणभर में आ सकते हैं, और क्षणभर में चले भी सकते हैं। शरीररूपी जीवनमन्दिर — जो प्रतीत होता है जैसे वह हमारा घर है — वह भी क्षणभंगुर है; एक क्षण में स्वस्थ, दूसरे में निर्बल, तीसरे में शून्य।

ऐसे संसार में जहाँ हर वस्तु, हर अनुभव, हर सम्बंध — यहाँ तक कि स्वयं अस्तित्व भी — परिवर्तन और अनित्यत्व के अधीन है, वहाँ किसी एक अविचल तत्व की खोज मनुष्य को अवश्य करनी होती है, अन्यथा उसका चित्त निरन्तर डगमगाता रहेगा। धर्म — इस सन्दर्भ में — कोई संप्रदायिक अनुशासन नहीं, अपितु जीवन की वह मूलगामी नैतिक संरचना है, जो मनुष्य के आन्तरिक मूल्य, कर्तव्यबुद्धि और सार्वभौम मर्यादा का संचित रूप है। वह न समय के अनुसार बदलता है, न बाह्य परिस्थितियों से विचलित होता है।

यह स्थायित्व का बोध मात्र सैद्धान्तिक नहीं, अपितु एक गहरी अस्तित्वगत मांग है — क्योंकि जो कुछ भी अस्थिर है, उस पर जीवन की नींव नहीं रखी जा सकती। प्रेम, सुख, सफलता, शक्ति — यदि वे सब चंचल हैं, तो उनके आधार पर अर्थपूर्णता की खोज भी चंचल ही होगी। इसीलिए धर्म को निश्चल कहा गया — वह न केवल स्थिर है, अपितु स्थायित्व का कारण है। वह चेतना को एक केन्द्र प्रदान करता है — ऐसा केन्द्र जो परिवर्तनशीलता की परिधि में नहीं आता।

यह चिन्तन यह भी प्रेरित करता है कि क्या मनुष्य का जीवन केवल अनित्य के बीच डगमगाने के लिए है? या फिर, क्या उसके पास ऐसा कुछ है जिसे वह साध सकता है — जो स्वयं परिवर्तन से परे है? यदि धर्म ही निश्चल है, तो क्या वही जीवन की दिशा का केन्द्रबिन्दु होना चाहिए? इन प्रश्नों का उत्तर केवल तात्त्विक चिन्तन नहीं, अपितु आचरणमूलक परीक्षण द्वारा भी खोजा जाना चाहिए। क्योंकि जहाँ केवल शब्द हैं, वहाँ स्थायित्व नहीं होता; स्थायित्व वहाँ होता है जहाँ धर्म को जिया जाता है।