मृदुना रक्ष्यते भूपः सत्स्त्रिया रक्ष्यते गृहम् ॥ ॥९॥
धर्म, विद्या, शासन तथा गृह सुरक्षा के संदर्भ में यह सूत्र सामाजिक, नैतिक एवं शासकीय मूल्यों का समुच्चय प्रस्तुत करता है। धर्म की रक्षा के लिए वित्त आवश्यक है, क्योंकि अर्थ बिना धर्म के पालन की प्रक्रिया संभव नहीं। वित्त यहाँ केवल धन-सम्पदा ही नहीं, बल्कि आर्थिक स्थिरता और संसाधनों के उचित प्रबंध का सूचक है, जो धार्मिक कर्मों के निर्वाह का आधार होता है।
विद्या की रक्षा योग से होती है। योग का अर्थ केवल शारीरिक अभ्यास नहीं, बल्कि मानसिक संयम, अभ्यास और ज्ञान का समुचित उपयोग भी है। विद्या अर्थात् ज्ञान, बुद्धि और कौशल, जो सही नियोजन और निरंतर अभ्यास से सुरक्षित रहती है। यह दर्शाता है कि ज्ञान के संरक्षण में अनुशासन और ध्यान का महत्व है।
राजा का संरक्षण मृदुता अर्थात् कोमलता और सहनशीलता से होता है। कठोरता और अत्याचार से राज्य की स्थिरता भंग हो सकती है, अतः शासन में नरम और न्यायपूर्ण व्यवहार शासन की सुरक्षा का आधार है।
घर की रक्षा सत्स्रिया से होती है, अर्थात् सद्गुणयुक्त पत्नी गृहस्थ के सामाजिक, आर्थिक एवं नैतिक पक्षों की रक्षा करती है। पत्नी का चरित्र, व्यवहार, और संस्कार परिवार के समग्र कल्याण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यह गृह सुरक्षा में महिला की अनिवार्य भूमिका को उजागर करता है।
यह श्लोक सामाजिक व्यवस्था के चार स्तम्भों—धर्म, विद्या, शासन और गृहस्थ—का संरक्षण करने के लिए आवश्यक कारकों की स्पष्ट विवेचना करता है। प्रत्येक स्तम्भ के संरक्षण में आर्थिक, बौद्धिक, मानवीय और नैतिक तत्व सम्मिलित हैं। संस्कृत ग्रंथों में वित्त, योग, मृदुता और सत्स्रिया जैसे शब्दों के गूढ़ार्थ सामाजिक तथा दार्शनिक विचारधाराओं को प्रतिबिंबित करते हैं।
रहस्यमय रूप से, यहाँ यह संकेत भी निहित है कि समृद्धि, ज्ञान, नीति और पारिवारिक सद्भाव के संरक्षण के लिए केवल बाह्य साधन पर्याप्त नहीं, अपितु आचार, मनोवृत्ति और चरित्र का भी अभूतपूर्व स्थान है। प्रत्येक तत्व एक-दूसरे के पूरक हैं और सभी मिलकर सामाजिक और व्यक्तिगत संतुलन की स्थापना करते हैं।
अतः यह सूत्र अर्थशास्त्र, नीतिशास्त्र और गृहस्थशास्त्र की समन्वित दृष्टि प्रस्तुत करता है, जो जीवन के प्रत्येक पहलू के संरक्षण के लिए सम्यक साधनों और गुणों की आवश्यकता को सूचित करता है।