गुणेन ज्ञायते त्वार्यः कोपो नेत्रेण गम्यते ॥ ॥५-८॥
गुण से व्यक्ति की श्रेष्ठता ज्ञात होती है, और क्रोध नेत्रों से प्रकट होता है।
विद्या, कुल, गुण, शीला एवं क्रोध ये मानवीय जीवन के महत्वपूर्ण तत्व हैं जिनका आचार्यकौटिल्य ने इस सूत्र में वैज्ञानिक रूप से विवेचन किया है। विद्या का अभिप्राय केवल शास्त्रीय ज्ञान ही नहीं, अपितु सतत अभ्यास से प्राप्त गहन अनुभूति एवं व्यवहारिक दक्षता है। अभ्यास के बिना ज्ञान केवल सैद्धांतिक रह जाता है। अतः अभ्यास से विद्या धार्य होती है।
कुल या वंश, जो सामाजिक प्रतिष्ठा, संस्कार, परंपरा और चरित्र का प्रतीक है, वह केवल जन्म से नहीं टिकता, अपितु सद्गुणयुक्त आचरण (शील) से धारणीय होता है। शील अर्थात चरित्र की स्थिरता ही कुल के संरक्षण में सहायक है।
गुणों द्वारा किसी व्यक्ति की श्रेष्ठता, उसकी प्रतिष्ठा, और उसकी समाज में मान्यता ज्ञात होती है। गुण केवल बाह्य प्रतीक नहीं, बल्कि आचार, व्यवहार, बुद्धि, तथा विवेक के समुच्चय के रूप में माने जाते हैं।
क्रोध, मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रिया के रूप में, नेत्रों द्वारा स्पष्ट रूप से प्रकट होता है। नेत्र व्यक्ति के भावों के सबसे मुखर अभिव्यक्तिकर्ता होते हैं। क्रोध का नेत्रों में प्रकट होना व्यवहारिक जीवन में चेतावनी या मानसिक स्थिति की सूचना देता है।
यह सूत्र मानव व्यवहार, सामाजिक संरचना एवं आचार विचार के मध्य गहन संबंध स्थापित करता है। यह दर्शाता है कि जीवन के महत्वपूर्ण तत्व (विद्या, कुल, गुण, क्रोध) एक-दूसरे से कैसे सम्बद्ध हैं और व्यक्तित्व के विकास में इनका क्या स्थान है। यह दर्शन मनुष्य को अपनी आचारशक्ति, ज्ञान-साधना और भावात्मक नियंत्रण पर सजग करता है।
ऐसे विचार आज भी प्रासंगिक हैं क्योंकि आधुनिक मनोविज्ञान में भी क्रोध की अभिव्यक्ति के शारीरिक-संकेतों की महत्ता स्वीकार की जाती है, और सामाजिक प्रतिष्ठा में गुणों का महत्त्व अपार है। कुल या वंश की स्थिरता के लिए चरित्र एवं आचार का महत्व यथावत् है।
इस प्रकार, यह सूत्र न केवल शास्त्रीय नीति का सार प्रस्तुत करता है, अपितु मानव व्यवहार एवं सामाजिक जीवन के व्यावहारिक नियमों का सूक्ष्म विवेचन भी है।