आगतं तु भयं वीक्ष्य प्रहर्तव्यमशङ्कया ॥ ॥५-३॥
इस सूत्र में भय के प्रति एक विवेचनात्मक दृष्टिकोण प्रदर्शित है जो मनुष्य के भय के व्यवहार को सम्यक् रूप से निर्देशित करता है। मनुष्य के लिए भय एक महत्वपूर्ण मानवीय अनुभूति है, परंतु इसका प्रबंधन विवेकपूर्वक होना आवश्यक है। यहाँ भय को दो रूपों में देखा गया है: एक तो अप्राप्त भय अर्थात् वह जो अभी नहीं आया है, और दूसरा प्राप्त भय अर्थात् वह जो वर्तमान में अनुभव किया जा रहा है।
प्रथम खण्ड में, कहा गया है कि जब तक कोई भय आने वाला न हो, तब तक उस भय से त्रस्त होना उचित नहीं। यह विचार मनोवैज्ञानिक दृष्टि से अकारण चिंता और भय से बचने की सलाह देता है। भय की पूर्वकल्पना, जो अभी व्यावहारिक रूप से उपस्थित नहीं है, न केवल मन को अनावश्यक तनाव देती है, अपितु निर्णय लेने की क्षमता को भी प्रभावित कर सकती है। इस संदर्भ में, भय की प्रकृति को समझना आवश्यक है—यह सामान्यतः मन के उत्पन्न हुए संदेह और अनिश्चितता से उपजता है। अतः, तब तक सतर्कता से भय के प्रति तैयार रहना चाहिए, परन्तु अकारण भयभीत होना अनुचित है।
द्वितीय खण्ड में, जब भय वर्तमान में उपस्थित होता है, तब उसे ठीक प्रकार से देखना और तदनुसार प्रतिक्रिया करना आवश्यक है। 'प्रहर्तव्यम् अशङ्कया' से तात्पर्य है कि भय को बिना अतिरेक के, विवेक एवं सावधानी से नष्ट करना चाहिए। यहाँ संशय का भाव आवश्यक है ताकि विवेकशील निर्णय लिया जा सके, जो न तो अत्यंत आशंकित हो और न ही लापरवाह।
यह दृष्टिकोण व्यवहारिक रणनीति का प्रक्षेपण करता है, जिसमें भावनाओं के नियंत्रण और यथार्थपरक चिंतन को महत्व दिया गया है। अतः, भय को न तो अस्वीकृत करना चाहिए न ही अन्धभक्तिपूर्वक स्वीकार करना चाहिए। यह मनुष्य को साहस और विवेक के मध्य संतुलन की ओर अग्रसर करता है, जो नीति, युद्धनीति, और दैनिक जीवन में निर्णायक भूमिका निभाता है।
भावार्थतः, इस श्लोक में भय के प्रति जागरूक, संतुलित, और विवेकपूर्ण दृष्टिकोण के सिद्धांतों की स्थापना की गई है, जो मानवीय निर्णय एवं क्रिया-प्रतिक्रिया के लिए अनिवार्य हैं। यह मनोवैज्ञानिक तथा नीतिशास्त्रीय दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण सिद्धांत प्रस्तुत करता है, जो भय के प्राकृतिक स्वभाव को स्वीकारते हुए उसके उचित प्रबंधन की दिशा दर्शाता है।