न भवन्ति समाः शीले यथा बदरकण्टकाः ॥ ०५-०४॥
मानवजीवन, समाज, तथा व्यक्तित्वशास्त्र के गहन अध्ययन में यह तत्त्व स्पष्ट होता है कि जातिगत या सांस्कृतिक समानता के आधार पर व्यक्तियों की स्वभावगत समानता की अपेक्षा करना शास्त्रसमर्थित नहीं। यहां उदाहरणार्थ कहा गया है कि जैसे बदर के कांटे, जो एक ही पौधे से उत्पन्न होते हैं, समान नहीं होते, वैसे ही एक ही उदर या नक्षत्र से जन्म लेने वाले भी अपने स्वभाव, प्रवृत्ति और मनोवृत्ति में भिन्न होते हैं।
प्राचीन भारतीय समाजशास्त्र एवं नीतिशास्त्र में यह धारणा मिलती है कि प्रत्येक व्यक्ति का चरित्र उसके जन्म के समय ग्रहों की दशा, मानसिक प्रवृत्ति, शिक्षा, और पर्यावरणीय प्रभावों द्वारा निर्मित होता है। केवल जन्मस्थान, कुल या नक्षत्र की समानता के कारण व्यक्ति की स्वाभाविक समानता स्वीकार करना अकथनीय है।
यह दृष्टिकोण सामाजिक संगति, नेतृत्व, तथा नीति निर्धारण के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। नीति के प्रवक्ता को यह समझना आवश्यक है कि समान पृष्ठभूमि के व्यक्तियों के स्वभावों में भिन्नता संभव है; अतः उन्हें एक समान नियमों से आकलित या न्यायीकृत नहीं किया जा सकता। यही कारण है कि नीतिशास्त्र में मनुष्य के व्यक्तित्व की जटिलता को ध्यान में रखकर निर्णय लेने का आग्रह किया गया है।
दर्शनशास्त्र में भी 'समानता' और 'भिन्नता' की यह विवेचना व्यक्तित्ववाद, संस्कृतिवाद, और व्यवहार विज्ञान की आधारशिला है। 'एकोदरसमुद्भूता' का तात्पर्य जाति, कुल, या सांस्कृतिक आधार से है, किन्तु स्वभाविक विभिन्नता को स्वीकार्य मानता है। नक्षत्र, जो ग्रहों की स्थिति दर्शाता है, व्यक्ति के जीवन, स्वभाव, और योग को प्रभावित करता है, लेकिन यह भी निर्धारित करता है कि समान नक्षत्र का अर्थ स्वाभाविक समानता नहीं।
यह दृष्टिकोण वर्तमान मनोविज्ञान के 'personality trait' सिद्धांत से साम्य स्थापित करता है, जिसमें कहा जाता है कि पर्यावरणीय, आनुवंशिक, और मानसिक कारण व्यक्तित्व को भिन्नता प्रदान करते हैं। अतः, नीति, प्रबंधन, और समाजशास्त्र के क्षेत्र में व्यक्तित्व के विश्लेषण और मानवीय व्यवहार की समझ के लिए इस श्लोक की अवधारणा अत्यंत प्रासंगिक है।