मानवाः स्वर्गमिच्छन्ति मोक्षमिच्छन्ति देवताः ॥ ०५-१८
इस श्लोक में जीवन के विभिन्न प्राणियों और उनकी अभिलाषाओं के आधार पर एक गहन सामाजिक और दार्शनिक विचार प्रस्तुत है। यहाँ चार प्रकार के प्राणी चार भिन्न प्रकार की इच्छाओं के अनुसार वर्गीकृत हैं, जो उनकी स्वाभाविक प्रवृत्तियों और अस्तित्व की आवश्यकताओं को दर्शाते हैं। धनहीन व्यक्ति धन की इच्छा रखते हैं, क्योंकि धन उनके जीवन के भौतिक और आर्थिक पक्ष की पूर्ति का माध्यम है। यह उनके भौतिक अस्तित्व को स्थिर करने और सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने की मूलभूत आकांक्षा है। पशु (चतुष्पद) केवल वाणी (वाचं) की अभिलाषा रखते हैं, जो उनके सामान्य प्रवचन और संवादात्मक सीमाओं को सूचित करता है; वे सरल प्रवृत्ति के होते हैं और उनकी इच्छाएँ तात्कालिक एवं भौतिक होती हैं। मनुष्य अपने जीवन के परे स्वर्ग की कामना करते हैं, जो सुख, सम्मान और सांसारिक आनंद का उच्चतम रूप है, और जो सामाजिक तथा आध्यात्मिक दोनों स्तरों पर परिभाषित होता है। देवता, जो सामान्यतः उच्चतर आध्यात्मिक सत्ता के रूप में माने जाते हैं, मोक्ष की इच्छा रखते हैं, अर्थात् जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति और पूर्ण निर्वाण की प्राप्ति।
यह वर्गीकरण न केवल जीवन के भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक चरणों को स्पष्ट करता है, बल्कि यह भी संकेत करता है कि प्रत्येक स्तर पर इच्छाएँ, स्वभाव और लक्ष्य भिन्न होते हैं। इसके माध्यम से जीवन के विकासक्रम को समझा जा सकता है, जहाँ एक व्यक्ति के विकास के साथ उसकी आकांक्षाएँ भी ऊँची और शुद्ध होती जाती हैं। यह दृष्टिकोण सामाजिक, दार्शनिक और आध्यात्मिक चिंतन के लिए एक आधारभूत रूपरेखा प्रदान करता है, जो मनुष्य के अस्तित्व के विविध पक्षों को समझने में सहायक है। इस प्रकार, इस श्लोक में व्यक्त दृष्टिकोण व्यक्तित्व विकास, नैतिकता, और जीवन के अंतिम लक्ष्य की ओर अग्रसरता के संदर्भ में महत्वपूर्ण है।