नास्ति चक्षुःसमं तेजो नास्ति धान्यसमं प्रियम् ॥ ०५-१७॥
यह श्लोक चार विभिन्न तत्वों की अतुल्यता पर विचार करता है जो जीवन और प्रकृति के महत्वपूर्ण पहलू हैं। प्रथमतया, 'मेघसमं तोयं' का अभिप्राय है कि मेघ जैसे विशाल और व्यापक जलराशि के समान कोई जल नहीं। मेघ, जो आकाश में छाया देता है, वर्षा लाता है और जीवन के लिए आवश्यक जल की आपूर्ति करता है, उसका स्वरूप अतुलनीय है। जल की यह व्यापकता जीवन के आधार को प्रतीकात्मक रूप से दर्शाती है।
द्वितीयतया, 'आत्मसमं बलम्' दर्शाता है कि आत्मा के समान कोई शक्ति नहीं है। आत्मा, शास्त्रीय दार्शनिक दृष्टि से, चेतना का मूल है जो शरीर और मन को शक्ति और जीवन प्रदान करती है। यह शक्ति भौतिक शक्तियों से परे, अंतर्निहित और अनंत है। अतः आत्मा की शक्ति की तुलना भौतिक बल से नहीं की जा सकती।
तृतीयतया, 'चक्षुःसमं तेजो' द्वारा दृष्टि के समान तेज का अभिप्राय है। तेज का भाव प्रकाश और ज्ञान दोनों में है। दृष्टि के प्रकाश के समान तेज वह है जो अंधकार को दूर करता है और स्पष्टता प्रदान करता है। ज्ञान और विवेक की उपमा के रूप में तेज का महत्व अत्यंत है, जो अज्ञानता के अंधकार को दूर करता है।
अंत में, 'धान्यसमं प्रियम्' से यह बताया गया है कि धान्य के समान प्रिय कोई वस्तु नहीं है। धान्य, जो अन्न का स्रोत है, जीवन की निरंतरता के लिए अपरिहार्य है। प्रेम और प्रियता का भाव धान्य के महत्व के समान गहरा है क्योंकि वह जीवन की रक्षा करता है।
इस प्रकार, श्लोक जीवन के चार अनिवार्य और अतुलनीय तत्वों — जल, शक्ति, तेज, और प्रियता — को स्थापित करता है। ये तत्व भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों रूपों में जीवन के आधार हैं। प्रत्येक तत्व का अपनी-अपनी अनन्यता है, जो उसे अद्वितीय बनाती है। इस विचार में गहन दर्शन निहित है कि जीवन की पूर्णता के लिए ये चारों आवश्यक और अप्रतिम हैं।
दार्शनिक दृष्टि से, यह अवधारणा बताती है कि भौतिक और आध्यात्मिक तत्वों के बिना जीवन असम्पूर्ण है। जल और धान्य भौतिक जीवन का आधार हैं, जबकि आत्मा की शक्ति और तेज ज्ञान आध्यात्मिक उन्नति के स्तम्भ हैं। अतः, जीवन की समग्रता और सौंदर्य इन चार तत्वों के सम्यक् संतुलन में निहित है।