वृथा दानं समर्थस्य वृथा दीपो दिवापि च ॥ ०५-१६॥
इस श्लोक में व्यर्थता की अवधारणा को गहन रूप से प्रस्तुत किया गया है, जो मनुष्य के आचार, संसाधन और कर्मों के प्रभाव को सूक्ष्मता से परखती है। यहां 'वृष्टि', 'भोजन', 'दान', तथा 'दीप' जैसे तत्वों का प्रयोग सांकेतिक रूप से किया गया है, जिनका परिणाम तभी सार्थक होता है जब उनका उचित उपयोग या उद्देश्य हो।
प्रथम पंक्ति में समुद्र में वर्षा का व्यर्थ होना प्रकृति की अतिशयता और संसाधनों के निरर्थक प्रवाह को सूचित करता है। वर्षा सामान्यतया जीवनदायिनी है, किन्तु जब यह समुद्र जैसे जल-संचय में ही बहती रहती है तो वह न तो भूमि को उपजाऊ बनाती है और न किसी जीव के लिए उपयोगी होती है। इसी प्रकार, तृप्त (संतुष्ट) व्यक्ति का भोजन व्यर्थ है क्योंकि उसकी आवश्यकता समाप्त हो चुकी होती है; अतः वह भोजन उसका पोषण नहीं करता, न उसकी स्थिति में कोई सुधार करता है। यह विषय मनुष्य के अनावश्यक लालच और अतिभोज की निरर्थकता की ओर संकेत करता है।
द्वितीय पंक्ति में समर्थ (क्षमतावान) व्यक्ति का दान व्यर्थ बताया गया है। यह सूचित करता है कि यदि दान का प्रयोजन उचित न हो, अर्थात् यदि वह दान ऐसा हो जो परिणामहीन हो या उद्देश्यहीन हो, तो वह भी निष्फल है। दान केवल शोषित या आवश्यकता वाले के लिए प्रभावशाली और फलदायी होता है। समर्थता और दान के बीच संतुलन अत्यंत आवश्यक है ताकि दान सामाजिक रूप से अर्थपूर्ण बने।
अंत में, दिन में दिया गया दीपक भी व्यर्थ माना गया है। दीपक सामान्यतः अंधकार निवारण और प्रकाश के लिए होता है। दिन में प्रकाश पहले से ही उपलब्ध होता है, अतः दीपक जलाना तात्कालिक रूप से अनावश्यक होता है। इसका दार्शनिक अर्थ यह भी हो सकता है कि उचित समय, स्थान और परिस्थिति के बिना किए गए कर्म भी निष्फल हो जाते हैं।
समग्रतः श्लोक यह संदेश देता है कि कर्म और साधन तभी फलदायी होते हैं जब वे उचित समय, स्थान, उद्देश्य और स्थिति के अनुरूप हों। संसाधनों या कार्यों का गलत उपयोग, अतिशयता या अनावश्यकता उन्हें निरर्थक बना देती है। यह न केवल आर्थिक या भौतिक संदर्भों में, बल्कि सामाजिक, नैतिक एवं दार्शनिक दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण है।
व्यर्थता की यह व्याख्या मनुष्य को विवेक, संतुलन और उपयुक्तता के मार्ग पर चलने हेतु प्रेरित करती है, जो चाणक्यनीति के तत्त्वगत ज्ञान का अभिन्न अंग है। संसाधनों, क्रियाओं और जीवन के प्रत्येक पहलू में सामयिकता एवं सार्थकता की अनिवार्यता का ज्ञान ही सच्ची नीति का आधार है।