नरकेषु पतत्येक एको याति परां गतिम् ॥ ०५-१३ ॥
यह श्लोक जीवन और मृत्यु के चक्र को एकात्मक रूप में प्रस्तुत करता है, जिसमें कर्मों की विविधता और उनके फलस्वरूप होने वाली परिणतियाँ समानात्मका दृष्टि से समाहित हैं। जन्म और मृत्यु को पृथक् नहीं बल्कि एक ही घटना के दो पहलू के रूप में देखा गया है, जो निरंतर चलने वाले जीवनचक्र की प्रकृति को दर्शाता है। इस जीवनचक्र में शुभ और अशुभ कर्मों के भोग का स्वामी वही व्यक्ति होता है, जो इस संसार में कर्मबद्ध होता है।
नरक में पतन और परमगति की प्राप्ति, दोनों एक ही व्यक्ति के भाग होते हैं, यह दर्शाता है कि मानव जीवन में अच्छे और बुरे कर्मों का प्रभाव एकसाथ रहता है, और व्यक्ति को उनके अनुसार परिणाम भोगने होते हैं। यहाँ पर ‘परां गतिम्’ का अर्थ मोक्ष या मुक्ति है, जो कर्मों के चक्र से विमुक्ति को सूचित करता है।
कर्म और पुनर्जन्म के सिद्धांतों के अनुरूप, यह विचार जीवन के दोहरे स्वरूप—दुःख और सुख, दण्ड और पुरस्कार, जन्म और मृत्यु—के मध्य एक गूढ़ सम्बंध स्थापित करता है। व्यक्तित्व की निरंतरता को ध्यान में रखते हुए, इस श्लोक में व्यक्त किया गया है कि कर्मों के फलस्वरूप व्यक्ति विभिन्न अवस्थाओं में जाता है, परंतु अन्ततः वह वही होता है जो सभी अनुभवों को भोगता है।
यह दृष्टिकोण न केवल आत्मा की यात्रा को समझने में सहायक है, बल्कि जीवन के नैतिक और दार्शनिक आयामों पर भी प्रकाश डालता है। कर्मों के परिणामस्वरूप उत्पन्न होने वाले शुभाशुभ फल, व्यक्ति के आध्यात्मिक उत्थान या पतन का निर्धारण करते हैं। इस प्रकार, जीवन की यह दार्शनिक व्याख्या, कर्म और पुनर्जन्म के गहन तत्त्वों को उजागर करती है और व्यक्तित्व के निरंतर अस्तित्व की अवधारणा को पुष्ट करती है।
इस श्लोक की गहराई में ध्यान देने पर यह भी स्पष्ट होता है कि जीवन का सुख-दुःख और मोक्ष-मुक्ति का चक्र व्यक्ति की अपने कर्मों से अलग नहीं है। इस कारण, कर्मों की सच्ची समझ और उनके उचित नियमन के बिना मोक्ष की प्राप्ति असंभव है। यह विचार दर्शन की अनेक शाखाओं जैसे न्याय, वेदांत, सांख्य में विस्तृत रूप से प्रकट होता है, जहाँ जीवात्मा के कर्म-बन्धन और मुक्तिके सिद्धांतों पर विशेष बल दिया गया है।