श्लोक ०५-१२

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
नास्ति कामसमो व्याधिर्नास्ति मोहसमो रिपुः ।
नास्ति कोपसमो वह्निर्नास्ति ज्ञानात्परं सुखम् ॥ ०५-१२॥
काम (इच्छा) के समान कोई रोग नहीं है, मोह (अंधविश्वास) के समान कोई शत्रु नहीं है। क्रोध के समान कोई अग्नि नहीं है, और ज्ञान से बड़ा कोई सुख नहीं है।

इस श्लोक में जीवन के प्रमुख बाधक और शत्रुओं की तुलना उनके समान रूपों से की गई है, जो मनुष्य के मानसिक और आध्यात्मिक स्थिति पर गहरा प्रभाव डालते हैं। काम (इच्छा) को रोग के समान बताया गया है क्योंकि अत्यधिक कामना मन को अशांत कर देती है और विभिन्न प्रकार के मानसिक कष्ट उत्पन्न करती है। यह रोग की भांति मन और शरीर दोनों को प्रभावित कर सकता है। मोह (अंधविश्वास या भ्रम) को शत्रु के समान माना गया है क्योंकि यह व्यक्ति के विवेक को अंधकारमय बनाकर उसे गलत रास्ते पर ले जाता है, जैसे शत्रु बाहरी रूप से हानि पहुंचाता है।

क्रोध को अग्नि के समान बताया गया है, जो विनाशकारी होता है और मनुष्य के आत्म-नियंत्रण को जलाकर उसे संकट में डालता है। क्रोध के प्रकोप से न केवल व्यक्ति स्वयं, बल्कि उसके आस-पास के लोग भी प्रभावित होते हैं।

परंतु ज्ञान को सबसे बड़ा सुख कहा गया है क्योंकि यह व्यक्ति को इन सभी बाधाओं से मुक्त कर आत्मिक शांति, स्थिरता, और सम्यक दृष्टि प्रदान करता है। ज्ञान ही वह प्रकाश है जो अज्ञानता के अंधकार को दूर करता है, मन को स्थिर करता है और जीवन के सभी दुःखों का अंत करता है। अतः, यह सुख न केवल अस्थायी भौतिक सुखों से श्रेष्ठ है, अपितु सर्वथा परम और अनंत है।

श्लोक में इन चार प्रमुख तत्वों के रूपकों द्वारा मनोवैज्ञानिक, नैतिक और आध्यात्मिक दृष्टीकोण से मानव जीवन की गहन समस्या और समाधान दोनों को उजागर किया गया है। यह विचार धर्म, दर्शन, और जीवनोपयोगी नीति के क्षेत्र में सम्यक जागरूकता उत्पन्न करता है कि जीवन में इच्छाओं का नियंत्रण, मोह से मुक्ति, क्रोध का दमन और ज्ञान की प्राप्ति अत्यंत आवश्यक है।

इन प्रतिबंधों का पालन करके ही मनुष्य सुख और शांति की प्राप्ति कर सकता है, जो अन्य सभी भौतिक और सांसारिक सुखों से परे है। ज्ञान का यह सुख स्थायी होता है और उसमें संशय या अनिश्चितता नहीं रहती। यह मनोविज्ञान, आध्यात्म, तथा नैतिकता का सामंजस्य स्थापित करता है।