श्लोक ०५-०१

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
गुरुरग्निर्द्विजातीनां वर्णानां ब्राह्मणो गुरुः ।
पतिरेव गुरुः स्त्रीणां सर्वस्याभ्यागतो गुरुः ॥ ०५-०१॥
गुरु द्विजों के लिए अग्नि के समान है, वर्णों में ब्राह्मण को गुरु कहा जाता है। स्त्रियों के लिए पति ही गुरु है और सभी के लिए अभिभावक गुरु है।

गुरु शब्द का महत्व प्राचीन भारतीय समाज में अत्यंत गूढ़ और व्यापक था। यहाँ गुरु के विभिन्न स्वरूपों को विशिष्ट संदर्भों में प्रतिष्ठित किया गया है, जो सामाजिक, आध्यात्मिक एवं पारिवारिक व्यवस्था की अभिन्न संरचना को दर्शाता है।

प्रथमं, द्विजों में अग्नि तुल्य गुरु की उपमा दी गई है। द्विजा शब्द का अर्थ है तीन वर्णों के पुरुष जो वेदाध्ययन आदि में संस्कार प्राप्त करते हैं। अग्नि यहाँ ज्ञान और पवित्रता का प्रतीक है। अग्नि दैवीय और पवित्र तत्व माना गया, जो अज्ञान के अन्धकार को दूर करता है तथा अनुष्ठानों, कर्मकाण्डों का संचालन करता है। अतः अग्नि-तुल्य गुरु का अर्थ है, जो ज्ञान का प्रकाश फैलाकर मनुष्य को आध्यात्मिक और सामाजिक दृष्टि से जीवन पथप्रदर्शक हो।

द्वितीयं, वर्ण व्यवस्था में ब्राह्मण को गुरु का स्थान दिया गया है। ब्राह्मण वे व्यक्ति जो विद्या, धार्मिक कर्म, संस्कार, और नीति के ज्ञाता होते हैं। ब्राह्मणगुरु ज्ञान की उच्चतम स्थति को धारण करता है और सामाजिक जीवन में धार्मिक अनुष्ठान और शिक्षा का पर्याय है। इस प्रकार, ब्राह्मण का गुरु होना सामाजिक व्यवस्था के सुसंगतता के लिए आवश्यक है।

तृतीयं, स्त्रीणां गुरुः पतिरेव इति दर्शितम्। भारतीय संस्कृति में पत्नी के लिए पति गुरुदेव के समान होता है, जो उसकी रक्षा, मार्गदर्शन तथा पालन-पोषण का उत्तरदायी होता है। पति का स्थान उसके पालनकर्ता, संरक्षक और आध्यात्मिक संरक्षक के रूप में स्थापित है।

अन्ते, सर्वस्याभ्यागतो गुरुः इति गुरु की व्यापक व्याख्या है। यह दर्शाता है कि प्रत्येक जीव के लिए एक व्यापक अभिभावक या मार्गदर्शक होता है, जो केवल व्यक्तिगत नहीं, अपितु सार्वत्रिक पालनहार का रूप धारण करता है। यह अभिभावक भौतिक, नैतिक और आध्यात्मिक पक्षों में जीवन को दिशा देता है।

अतः गुरु के विभिन्न रूप सामाजिक, धार्मिक और पारिवारिक जीवन के स्तंभ हैं। वे मानव जीवन के विभिन्न आयामों में ज्ञान, संरक्षण और नेतृत्व प्रदान करते हैं। इस श्लोक में गुरु की बहुमुखी भूमिका को अभिव्यक्त करते हुए, प्रत्येक वर्ग एवं संबंध में गुरु का आवश्यक स्थान प्रतिपादित होता है।

श्लोक द्वारा प्रस्तुत गुरु की परिभाषा केवल पारंपरिक गुरु-शिष्य संबंध तक सीमित नहीं, अपितु विस्तृत सामाजिक व्यवस्था और मानव जीवन के संरक्षक तत्व को भी उद्घाटित करती है। यह गुरु की सामाजिक प्रतिष्ठा, धार्मिक महत्व तथा पारिवारिक दायित्वों का विशद विवेचन है, जो भारतीय संस्कृति की सामंजस्यपूर्ण संरचना का आधार है।