श्लोक ०४-१९

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
अग्निर्देवो द्विजातीनां मुनीनां हृदि दैवतम् ।
प्रतिमा स्वल्पबुद्धीनां सर्वत्र समदर्शिनः ॥ ०४-१९ ॥
अग्नि देवता है द्विजों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य वर्गों) और मुनियों के हृदय में स्थापित दिव्य शक्ति। वह उन लोगों के लिए प्रतिमा मात्र है जिनकी बुद्धि कमज़ोर होती है, किन्तु सभी स्थानों पर समान दृष्टि रखनेवाला है।

अग्नि का स्थान भारतीय दार्शनिक, धार्मिक और सामाजिक संदर्भों में अत्यंत महत्वपूर्ण है। प्राचीन वेदों और उपनिषदों में अग्नि को देवों का प्रतिनिधि माना गया है, जो यज्ञों के माध्यम से ईश्वरों तथा मनुष्यों के बीच संचार का कार्य करता है। द्विज जाति, विशेषकर ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य वर्गों को सामाजिक और धार्मिक कर्मों में अग्नि की उपस्थिति अत्यावश्यक मानी जाती है, क्योंकि अग्नि यज्ञ और अनुष्ठान के दौरान शुद्धि, ऊर्जा एवं दिव्यता प्रदान करती है। मुनि, जो आध्यात्मिक ज्ञान तथा तपस्या के साधक होते हैं, उनके हृदय में अग्नि का स्थान दैवीय रूप में प्रतीकात्मक है—यह उनके अज्ञान का नाश करने वाली ज्ञानरूप ऊर्जा का प्रतीक है।

दूसरी ओर, स्वल्पबुद्धि अर्थात् कम ज्ञानी व्यक्तियों के लिए अग्नि एक मूर्ति या प्रतिमा मात्र है। इसका तात्पर्य यह है कि अग्नि के वास्तविक आध्यात्मिक और दैवीय स्वरूप को समझने में ये लोग असमर्थ होते हैं और उसे केवल एक भौतिक रूप या मूर्ति के समान समझते हैं। परन्तु जो व्यक्तित्व समदर्शी है, अर्थात् जो सभी जीवों और तत्वों को समान भाव से देखता है, उसके लिए अग्नि केवल बाह्य स्वरूप या प्रतिमा नहीं, अपितु समग्र सृष्टि में व्याप्त एक दैवीय सत्ता है।

यह श्लोक अग्नि की दोहरी भूमिका पर प्रकाश डालता है — एक ओर उसका दैवीय, आध्यात्मिक स्वरूप जो ज्ञानियों और मुनियों के हृदय में वास करता है, तथा दूसरी ओर उसकी मूर्तिपूजा रूपी समझ, जो सामान्य और स्वल्पबुद्धि लोगों के लिए सीमित और अंश मात्र है। यह द्रष्टिकोण धार्मिक और दार्शनिक चेतना के स्तरों में अंतर को उद्घाटित करता है, जहाँ प्रतीकात्मकता और वास्तविकता के बीच स्पष्ट भेद होता है।

आग्नि का दैवीय स्वरूप लोक और आत्मा के बीच मध्यस्थ की तरह है, जो कर्म, ज्ञान, तपस्या तथा यज्ञ क्रियाओं में शुद्धि एवं ऊर्जा प्रदान करता है। मुनियों के लिए यह एक दिव्य शक्ति है जो अंतरात्मा को प्रकाशित करती है, जबकि साधारण जनों के लिए यह एक बाह्य देवता या प्रतिमा के रूप में ग्रहणीय है। इस प्रकार, अग्नि का यह विविध और व्यापक स्वरूप जीवन के आध्यात्मिक एवं सामाजिक दोनों पहलुओं के बीच एक पुल का कार्य करता है।

धार्मिक ग्रन्थों में अग्नि का स्थान संस्कार, ज्ञान, तपस्या और धर्म पालन के अनिवार्य अंग के रूप में वर्णित है। शास्त्रीय दृष्टिकोण से, यह श्लोक व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास और ज्ञान के स्तर के अनुसार अग्नि के प्रति उसकी समझ तथा दृष्टिकोण में अंतर को उद्घाटित करता है। यहाँ अग्नि का दैवीय स्वरूप न केवल उपासना का विषय है, अपितु आंतरिक चेतना और समदर्शिता का भी प्रतीक है।