पुत्रश्च मूर्खो विधवा च कन्या विनाग्निना षट्प्रदहन्ति कायम् ॥ ०४-०८
शरीर और जीवन की सुरक्षा केवल बाहरी या भौतिक साधनों से ही नहीं, अपितु सामाजिक, पारिवारिक, और आचार्यात्मक कारकों से भी अत्यधिक प्रभावित होती है। कुटुंब और सामाजिक परिवेश की शुद्धता, सेवा की गुणवता, आहार की श्रेष्ठता, मानसिक और भावनात्मक संतुलन—ये सभी एक-दूसरे से घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए हैं और जीवन के स्वास्थ्य, शांति और दीर्घायु के लिए अनिवार्य हैं।
यहाँ, 'कुग्रामवासः' से अभिप्राय उस व्यक्ति से है जो अशुभ, अनैतिक, या अशुद्ध वातावरण में रहता है, जो सामाजिक रूप से पतित माना जाता है। 'कुलहीनसेवा' से तात्पर्य ऐसी सेवा से है जो कुल की गरिमा और प्रतिष्ठा को नुकसान पहुँचाती है, जैसे सेवक का अनादर या असम्मान। 'कुभोजनं' अर्थात् अशुद्ध, अनुपयुक्त या अपाच्य आहार, जो स्वास्थ्य और मनःस्थिति दोनों के लिए हानिकारक होता है। 'क्रोधमुखी भार्या' से मानसिक अशांति और गृह कलह का सूचक है, जो सम्पूर्ण परिवार के वातावरण को विषाक्त कर देती है। 'पुत्रः मूर्खः' परिवार के कल्याण के लिए हानिकारक होता है क्योंकि वह विवेकहीन और नाशकारक व्यवहार कर सकता है। 'विधवा च कन्या' परंपरागत सामाजिक दृष्टिकोण से परिवार की स्थिरता और सुरक्षा के लिए खतरा मानी जाती हैं।
इन्हें 'विनाग्निना षट्प्रदहन्ति कायम्' के माध्यम से समझाया गया है कि ये सभी बिना किसी भौतिक अग्नि के भी शरीर को छः प्रकार की आंतरिक आग से जला देते हैं। यहाँ 'अग्नि' का अर्थ न केवल शारीरिक अग्नि है, बल्कि वेतारक, मानसिक, और सामाजिक आघात हैं जो शरीर और मन को नष्ट करते हैं। शास्त्रीय दृष्टि से, अग्नि जीवन और स्वास्थ्य की ऊर्जा का प्रतीक है, और इसके बिना जीवन अस्थिर और संकटकालीन हो जाता है।
सामाजिक और पारिवारिक जीवन के ये छः दोषक तत्व जीवन को अधोगामी बनाते हैं और व्यक्ति के समग्र स्वास्थ्य, सुख-शांति, और सामाजिक प्रतिष्ठा को भंग करते हैं। उनके प्रभाव से मनोविकार, तनाव, रोग, और सामाजिक पतन होता है। अतः, जीवन में इनसे बचाव एवं शुद्धता की रक्षा अनिवार्य है।
तथ्य यह है कि मनुष्य केवल बाह्य रूप से ही नहीं, बल्कि आंतरिक और सामाजिक रूप से भी समृद्ध होना चाहिए। जो व्यक्ति अशुभ वातावरण में रहता है, जिसकी सेवा अशिष्ट या अपमानजनक होती है, जिसके आहार में असंतुलन है, जिसकी पत्नी क्रोधी है, जिसके पुत्र मूर्ख हैं, और जिसके परिवार में विधवा या असुरक्षित कन्या हैं, वह स्वयं ही अपने अस्तित्व के लिए आंतरिक और बाह्य रूप से खतरा उत्पन्न करता है। ऐसे वातावरण और परिवार से दूर रहना ही दीर्घायु, सुख, और मानसिक शांति के लिए आवश्यक है।
यह श्लोक जीवन की सामाजिक और पारिवारिक स्थितियों की जटिलता और उनके प्रभावों पर गहन दृष्टि प्रदान करता है। शारीरिक स्वास्थ्य की रक्षा के साथ-साथ मानसिक और सामाजिक स्वास्थ्य का समुचित प्रबंधन भी अति आवश्यक है, क्योंकि ये सभी परस्पर संलग्न हैं और जीवन की पूर्णता के लिए आवश्यक हैं।