मृतः स चाल्पदुःखाय यावज्जीवं जडो दहेत् ॥ ०४-०७ ॥
यह विचार मानवजीवन की गहन दार्शनिकता को प्रस्तुत करता है, जिसमें केवल दीर्घायु होना जीवन की सार्थकता नहीं है। जीवन की गुणवत्ता, उसकी जागरूकता, संवेदनशीलता और बुद्धिमत्ता ही वास्तविक जीवन को परिभाषित करती है। मूर्खता और असंवेदनशीलता से ग्रस्त व्यक्ति चाहे शारीरिक रूप से लंबा जीवन प्राप्त कर ले, वह जीवन की वास्तविक सार्थकता और उद्देश्य से विमुख रहता है।
दीर्घायु का वास्तविक मूल्य तभी समझा जा सकता है जब वह बुद्धिमत्ता और ज्ञान के साथ जुड़ा हो। शारीरिक जीवन का स्थायित्व तभी फलदायी है जब मनोवैज्ञानिक और बौद्धिक जागरूकता जीवित हो। इस प्रकार, जड़ता और मूर्खता के कारण व्यक्ति का जीवन अप्रभावी और अर्धमृत समान हो जाता है।
किसी भी दर्शन या नीति में जीवन का मूल उद्देश्य केवल अस्तित्व में रहना नहीं, बल्कि ज्ञान, समझदारी, और संवेदना के साथ जागरूक रूप से जीवन जीना होता है। अतः, असंवेदनशील मूर्खता और जड़ता जीवित रहने के लिए नहीं, बल्कि जीवन के वास्तविक अर्थ की मृत्यु के समान है।
इस श्लोक के आधार पर जीवन की गुणवत्ता पर चिंतन आवश्यक है, जो केवल शारीरिक दीर्घायु से नहीं, बल्कि बौद्धिक और मानसिक जागरूकता से मापी जानी चाहिए।