अमैथुनं जरा स्त्रीणां वस्त्राणामातपो जरा ॥ ॥४-१७॥
यह श्लोक वृद्धावस्था (जरा) की प्रकृति और उसके व्यापक प्रभावों का सूक्ष्मतापूर्वक विवेचन करता है। जरा केवल शारीरिक शरीर तक सीमित नहीं रहती, अपितु जीवन के विभिन्न स्तरों और अवस्थाओं में उसके समान प्रभाव देखने को मिलते हैं। मार्ग (अध्वा) पर चलने से मार्ग का क्षरण होता है, जैसे शरीर बूढ़ा होता है। पर्वत, जो स्थिर और अचल प्रतीत होते हैं, उनमें भी जल का क्षय होता है, जो अनित्य और परिवर्तनशीलता की अनुभूति कराता है। महिलाओं में मैथुनहीनता (संभोगहीनता) का उदाहरण दिया गया है, जो उम्र बढ़ने के साथ यौनजीवन में होने वाले परिवर्तन को दर्शाता है। वस्त्रों पर ताप का प्रभाव, जो वस्त्रों को क्षीण करता है, को भी वृद्धावस्था की उपमा के रूप में प्रस्तुत किया गया है।
श्लोक वृद्धावस्था के व्यापक दायरे को समझाता है, जो न केवल जीवित शरीर बल्कि निर्जीव वस्तुओं और सामाजिक-मानवीय व्यवहारों में भी अंतर्निहित है। यह जीवन के अनित्य और परिवर्तनशील स्वरूप को दर्शाता है, जिसमें प्रत्येक वस्तु या अवस्था, चाहे वह शारीरिक हो या प्राकृतिक, अंततः क्षरणशील है।
इस दृष्टिकोण से, जरा का अर्थ मात्र शारीरिक उम्र का बढ़ना नहीं, अपितु जीवन के विभिन्न पहलुओं में अपरिहार्य परिवर्तन और क्षरण की अवस्था है। यह चिन्तन 'काल' की सत्ता और इसके प्रभावों की सार्वभौमिकता को उद्घाटित करता है। मानव जीवन, प्राकृतिक वस्तुएं, तथा सामाजिक-मानव व्यवहार—इन सभी का स्वरूप अंततः परिवर्तन और क्षरण की ओर अग्रसर है।
जरा के विषय में यह दर्शन मनुष्य को क्षणभंगुरता की अनुभूति कराता है और जीवन के प्रत्येक पहलू में सतत परिवर्तन को स्वीकारने की शिक्षा प्रदान करता है। इसके द्वारा न केवल जीवन के नश्वर स्वरूप का बोध होता है, बल्कि सम्यक् दृष्टि से संसार के चक्र को भी समझने में सहायता मिलती है।
अतः, यह श्लोक जीवन के विविध आयामों में जरा के अभिन्न प्रभावों की गहन दार्शनिक विवेचना प्रस्तुत करता है, जो चरम अनित्यत्व और अवश्यंभावी क्षरण को समाहित करता है। यह चिन्तन न केवल शरीर, वस्त्र या प्राकृतिक वस्तुओं पर, बल्कि मानव व्यवहार और संबंधों पर भी लागू होता है, जहाँ समय के प्रभाव से अपरिहार्य परिवर्तन होते हैं।