त्यजेत्क्रोधमुखीं भार्यां निःस्नेहान्बान्धवांस्त्यजेत् ॥ ०४-१६
धर्म, दया, शिक्षा, तथा स्नेह ये चार प्रमुख तत्व मानव संबंधों तथा समाज के नियामक हैं। जब कोई गुरु धर्म, दया एवं विद्या से रहित हो, तब वह मार्गदर्शन के योग्य नहीं रह जाता। गुरु का धर्म का पालन, दया से युक्त होना, और ज्ञान का आचारण आवश्यक है क्योंकि गुरु व्यक्ति के जीवन का मार्गदर्शक होता है। इसके बिना गुरु का स्थान और उसका प्रभाव निरर्थक हो जाता है।
इसी प्रकार, पत्नी जो क्रोधप्रधान हो, वह पारिवारिक सौहार्द्र और जीवन के सुख की बाधक बन जाती है। क्रोधस्थता परिवार में कलह, विघ्न और असंतोष उत्पन्न करती है, अतः ऐसी पत्नी को त्याग देना उचित समझा गया है।
अन्त में, सम्बन्धी जो स्नेहहीन, अनासक्त या उपेक्षापूर्ण व्यवहार करते हैं, वे स्वाभाविक रूप से सामाजिक व व्यक्तिगत समर्थन में बाधक होते हैं। ऐसे निःस्नेही बन्धु के साथ संबंध रखना न केवल श्रमसाध्य है, अपितु व्यक्ति की प्रगति एवं मानसिक शान्ति के लिए भी हानिकारक सिद्ध होता है।
इस प्रकार, श्लोक द्वारा स्पष्ट है कि जीवन में ऐसे सम्बन्धों एवं व्यक्तियों का त्याग आवश्यक है, जो मनुष्य के आध्यात्मिक, मानसिक तथा सामाजिक उत्थान में बाधक हों। यह न केवल विवेकपूर्ण आचरण है, बल्कि सामाजिक और आत्मिक स्वास्थ्य का संरक्षण भी है। त्याग की यह नीति सूक्ष्म रूप से मानवीय रिश्तों के गुणात्मक मूल्यांकन पर आधारित है और जीवन के उत्थान के लिए आवश्यक है।