दरिद्रस्य विषं गोष्ठी वृद्धस्य तरुणी विषम् ॥ ०४-१५
यह श्लोक व्यवहार और नीति के अत्यंत सूक्ष्म एवं गहन विचार प्रस्तुत करता है। अभ्यास का अभाव शास्त्र को विष के समान बतलाता है क्योंकि अध्ययन के बिना विद्या केवल एक निर्जीव ग्रंथ रह जाती है, जो उपयोगी नहीं बल्कि हानिकारक भी हो सकती है। शास्त्र का सार ज्ञान है, जो निरंतर अभ्यास और मनन से जीवित रहता है; यदि वह अभ्यास न हो तो वह विषाक्त सिद्ध हो सकता है। इसी प्रकार अधूरा, अपाच्य भोजन शरीर के लिए विष के समान होता है, जो पोषण नहीं कर पाता बल्कि कुपोषण और रोग उत्पन्न करता है।
गरीबी का विष बताना आर्थिक और मानसिक संकटों की सूचक है, जो मनुष्य के जीवन में अनेक बाधाएं उत्पन्न करता है। समाजिक गोष्ठी, जो विवाद या अनावश्यक आलोचनाओं का मंच बन जाए, वह भी विष समान है क्योंकि वह मन को अशांत कर सामाजिक संबंधों को विषैले बना सकता है। वृद्ध पुरुष के लिए युवा स्त्री का विष होना संभवतः सामाजिक और नैतिक दृष्टिकोण से अविवेकपूर्ण संबंधों के दुष्परिणामों को इंगित करता है, जो जीवन की शांति और प्रतिष्ठा के लिए हानिकारक हो सकता है।
इस प्रकार श्लोक विभिन्न विषों के रूपों को जीवन में उनकी हानिकारक प्रकृति के आधार पर समझाता है, जो न केवल शारीरिक बल्कि सामाजिक, नैतिक और बौद्धिक स्तरों पर भी खतरा उत्पन्न करते हैं। ये विष केवल भौतिक विष नहीं, बल्कि वह सब कुछ है जो जीवन को भ्रष्ट, अशांत या अनास्थावान् कर देता है। इसलिए जीवन में सावधानीपूर्वक चयन और सतत् अभ्यास अत्यंत आवश्यक है।