श्लोक ०४-१४

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
अपुत्रस्य गृहं शून्यं दिशः शून्यास्त्वबान्धवाः ।
मूर्खस्य हृदयं शून्यं सर्वशून्या दरिद्रता ॥ ०४-१४
जिसके पुत्र नहीं, उसका घर सूना रहता है; जिसके सम्बन्धी नहीं, दिशाएँ भी सूनी लगती हैं। मूर्ख का हृदय शून्य होता है; इसी कारण सारी दरिद्रता उसमें समाहित होती है।

पूत्रशून्यता को गृहस्य शून्यता के रूप में प्रस्तुत किया गया है, जो परिवार और संतानोत्पत्ति के महत्व को दर्शाता है। पुत्र मात्र जन्म देना ही नहीं, अपितु वह परिवार में सामाजिक, आर्थिक, और सांस्कृतिक स्थिरता का स्रोत होता है। पुत्र का अभाव गृह को निरर्थक, खाली और जीवनरहित बना देता है। इससे परिवार की प्रतिष्ठा, सुख-शांति, और सामाजिक समर्थन कमजोर हो जाते हैं।

दिशा और संबंधियों का अभाव भी एक प्रकार की शून्यता है, जो सामाजिक ताने-बाने के टूटने का सूचक है। मानवीय जीवन में संबंधों का अत्यन्त महत्त्व है, वे व्यक्ति को मानसिक और सामाजिक सुरक्षा प्रदान करते हैं। जब सम्बन्धी और मित्र नहीं होते, तब जीवन दिशाहीन, उदासीन और निराशाजनक हो जाता है।

हृदय की शून्यता मूर्खता से सम्बद्ध है, जो आंतरिक जीवन के अभाव, ज्ञानहीनता और समझ की कमी को दर्शाती है। हृदय यदि भाव, विचार, और बुद्धि से रिक्त हो, तो व्यक्ति सभी प्रकार की दुर्बलताओं और दरिद्रताओं से घिर जाता है। यह दरिद्रता केवल आर्थिक नहीं, बल्कि मानसिक, सामाजिक और आध्यात्मिक भी होती है।

अर्थात्, गृह में पुत्र का अभाव, सम्बन्धियों का अभाव, तथा हृदय की मूर्खता, ये तीनों मिलकर जीवन में सम्पूर्ण शून्यता और दरिद्रता उत्पन्न करते हैं। यह श्लोक जीवन के सामाजिक, पारिवारिक और मानसिक आयामों पर गहन दृष्‍टि डालता है और यह सूचित करता है कि व्यक्तित्व और परिवार की पूर्णता में संतान, संबंध और ज्ञान तीनों आवश्यक हैं।

दार्शनिक दृष्टिकोण से, शून्यता को केवल शारीरिक अभाव के रूप में नहीं, बल्कि भावनात्मक, बौद्धिक और सामाजिक स्थिरता की कमी के रूप में देखना आवश्यक है। मूर्खता का हृदय में होना जीवन की समग्रता को नष्ट कर देता है। यह विचार आत्मचिंतन और जीवन मूल्यों के पुनर्मूल्यांकन की प्रेरणा देता है।