श्लोक ०४-०१

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
आयुः कर्म च वित्तं च विद्या निधनमेव च ।
पञ्चैतानि हि सृज्यन्ते गर्भस्थस्यैव देहिनः ॥ ॥०४-०१॥
आयु, कर्म, धन और विद्या तथा मृत्यु— ये पाँच वस्तुएँ गर्भ में स्थित जीव के शरीर से ही उत्पन्न होती हैं।

इस श्लोक में पाँच प्रमुख तत्वों—आयु (जीवनकाल), कर्म (कार्य और प्रयास), वित्त (धन-संपदा), विद्या (ज्ञान और शिक्षा) और निधन (मृत्यु)—का उल्लेख है, जो सभी जीव के शरीर के गर्भस्थ अवस्था से उत्पन्न माने गए हैं। यह विचार जीवन की प्रारंभिक अवस्था और उसकी अंतर्निहित अवस्थाओं की व्याख्या करता है। गर्भस्थ अवस्था को जीव का मूलाधार माना गया है, जहाँ से ये पाँच तत्व संपूर्ण जीवनकाल के लिए आधारभूत होते हैं। आयु का उद्भव गर्भ से ही होता है, क्योंकि जीवन की शुरुआत गर्भधारण से होती है। कर्म और वित्त भी इसी प्रारंभिक स्थिति से प्रभावित होते हैं, जो जन्म के पश्चात् जीव के व्यवहार और संसाधनों का निर्धारण करते हैं। विद्या, जो सामाजिक एवं व्यक्तिगत विकास की कुंजी है, भी प्रारंभ में शरीर के विकास और मानसिक अवस्थाओं के साथ जुड़ी होती है। अंत में, निधन या मृत्यु भी शरीर की प्राकृतिक समाप्ति को इंगित करती है, जो जीव के शरीर के साथ ही निश्चित होती है।

इस प्रकार, श्लोक जीवन की संपूर्ण यात्रा का संक्षिप्त रूप प्रदान करता है, जिसमें जीवन का आरम्भ, उसका विकास, सामाजिक-आर्थिक पक्ष और अन्तिम अवस्था सम्मिलित हैं। गर्भस्थ अवस्था को आधार मानकर यह दर्शाया गया है कि प्रत्येक तत्व, चाहे वह सकारात्मक हो या नकारात्मक, शरीर के जन्म से गहराई से जुड़ा हुआ है।

दार्शनिक दृष्टि से, यह श्लोक शरीर-जीव का मूलतत्त्व और उसकी सीमाओं का चिंतन प्रस्तुत करता है। आयु, कर्म, धन, विद्या और मृत्यु जीवन के निरंतर प्रवाह के विभिन्न आयाम हैं, जो व्यक्ति के अस्तित्व और अनुभवों को निर्धारित करते हैं। ये तत्व न केवल व्यक्तिगत स्तर पर, बल्कि सामाजिक एवं सांसारिक संदर्भों में भी महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि जीवन के ये पहलू सामाजिक क्रियाकलापों, नैतिकता, तथा आर्थिक व्यवहार के केंद्र में आते हैं।

इस संदर्भ में, आयु कर्म और वित्त के साथ विद्या का समावेश भी उल्लेखनीय है, क्योंकि विद्या के बिना कर्म और वित्त के सार्थक प्रयोग की कल्पना करना कठिन है। विद्या वह ज्ञान है जो कर्म को सही दिशा देती है और धन का उपयोग न्यायसंगत बनाती है। मृत्यु का समावेश इस चक्र में जीवन की अनित्य और सीमित प्रकृति का बोध कराता है। इस प्रकार, जीवन के ये पाँच तत्व अंतःसंबद्ध और परस्पर निर्भर हैं, जो गर्भ से शुरू होकर शरीर के अस्तित्व तक फैले हुए हैं।

श्लोक में उल्लिखित ये पाँच तत्व जीवन के प्राकृतिक नियमों और नियति के सिद्धांतों का भी प्रतिनिधित्व करते हैं, जो किसी भी व्यक्ति के लिए अवश्यम्भावी हैं। प्रत्येक तत्व का अपना स्थान, महत्व और प्रभाव है, जो जीवन के विविध आयामों को परिभाषित करता है।