विद्या रूपं कुरूपाणां क्षमा रूपं तपस्विनाम् ॥ ॥०३-०९॥
सौंदर्य का मूल्य केवल शारीरिक आकर्षण तक सीमित नहीं होता। वास्तव में, सौंदर्य बहुआयामी है — यह गुणों, आचरण और अंतःकरण की विशेषताओं से भी प्रकट होता है। एक कोयल का आकर्षण उसके रंगरूप में नहीं, बल्कि उसके मधुर स्वर में है। वह अपनी सादगी में भी उस समय तक मन मोहती है जब तक उसकी ध्वनि श्रवण को आनंदित करती है। यही सिद्धांत मनुष्यों पर भी लागू होता है। यदि स्वर रूप हो सकता है, तो संस्कार भी रूप हो सकते हैं।
स्त्री के लिए रूप केवल बाहरी सौंदर्य नहीं, बल्कि उसका निष्ठा और पतिव्रत धर्म में दृढ़ होना उसकी आत्मिक गरिमा को प्रकट करता है। यह पतिव्रता धर्म किसी पराधीनता का प्रतीक नहीं, बल्कि एक आत्मनिर्भर संकल्प है — जहाँ स्त्री अपने संबंधों, कर्तव्यों और आत्मसम्मान को सुसंगठित करती है। यह आंतरिक सौंदर्य उसे एक उच्च स्थान प्रदान करता है, जो केवल बाह्य सौंदर्य से संभव नहीं।
जो व्यक्ति शारीरिक रूप से आकर्षक नहीं हैं, उनके लिए विद्या वह शक्ति है जो उन्हें समाज में सम्मान और प्रतिष्ठा दिला सकती है। विद्या केवल जानकारी का संग्रह नहीं, बल्कि एक ऐसा आभूषण है जो मनुष्य की सम्पूर्णता को परिभाषित करता है। वह कुरूपता को नहीं, बल्कि मूर्खता को लज्जास्पद मानता है। इसीलिए, विद्वान चाहे जैसा भी दिखे, उसकी विद्या उसका तेज बन जाती है — एक ऐसा तेज जिसे कोई शारीरिक रूप पीछे नहीं छोड़ सकता।
तपस्वी के लिए क्षमा ही उसका आभूषण है। तप का सार केवल कठिन साधनाओं में नहीं, बल्कि उस क्षमतावान स्थिति में है जहाँ वह स्वयं को, दूसरों की भूलों को, और जीवन की प्रतिकूलताओं को क्षमा कर सके। क्षमा उस उच्चतम आत्मबल की पहचान है जो क्रोध, प्रतिशोध और द्वेष के पार जाकर शांति की प्रतिष्ठा करता है। यह क्षमा, जो दुर्बलता नहीं बल्कि उन्नत आत्मसंयम का प्रतीक है, तपस्वी के स्वरूप को दिव्यता से ओतप्रोत करती है।
यह दृष्टिकोण समाज में रूप और मान्यता के स्थापित मापदंडों को चुनौती देता है। यदि स्वर, निष्ठा, विद्या और क्षमा को सौंदर्य का पर्याय मान लिया जाए, तो फिर बाह्य आकर्षण की संकीर्ण व्याख्या व्यर्थ हो जाती है। यह मूल्यांकन की एक नई दृष्टि है — जहाँ सौंदर्य को केवल देखा नहीं, समझा और अनुभव किया जाता है।