श्लोक ०३-१०

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
त्यजेदेकं कुलस्यार्थे ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत् ।
ग्रामं जनपदस्यार्थे आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत् ॥ ॥०३-१०॥
कुल के हित के लिए एक व्यक्ति को त्याग देना चाहिए, ग्राम के हित के लिए एक कुल का त्याग करना चाहिए। जनपद के हित के लिए ग्राम का त्याग कर देना चाहिए, और आत्मकल्याण के लिए समस्त पृथ्वी का भी त्याग कर देना चाहिए।

समष्टि और व्यष्टि के संबंध में निर्णयों की जटिलता तब तीव्र होती है जब हमें किसी एक की रक्षा के लिए किसी दूसरे का त्याग करना पड़े। यहाँ त्याग का तात्पर्य केवल शारीरिक परित्याग नहीं, बल्कि वह मानसिक, नैतिक और कभी-कभी राजनीतिक निर्णय है जो किसी उच्चतर उद्देश्य की सिद्धि के लिए आवश्यक होता है। जिस समाज में व्यक्ति सर्वोपरि होता है, वहाँ दीर्घकालिक समष्टिगत हानि के बीज बोए जाते हैं। इसके विपरीत, जहाँ एक व्यक्ति को समुदाय के हित में न्योछावर करने का विवेक हो, वहाँ टिकाऊ व्यवस्था की संभावना प्रबल होती है।

त्याग का यह सिद्धांत वस्तुतः प्राथमिकताओं की सीढ़ी पर आधारित है—व्यक्ति, परिवार, ग्राम, जनपद, और अंत में आत्मा। जैसे-जैसे हम उच्चतर स्तर पर चढ़ते हैं, अपेक्षित त्याग भी अधिक गहन और निर्णायक होता है। जब आत्मा की बात आती है, तो सारी भौतिक सत्ता — पृथ्वी, सम्पत्ति, यश — क्षणिक प्रतीत होती है। आत्मकल्याण के मार्ग में आनेवाले समस्त अवरोध, चाहे वे जितने भी बड़े क्यों न हों, त्याज्य हो जाते हैं।

यह दृष्टिकोण नैतिक द्वंद्वों की घड़ी में निर्णायक होता है। जब एक व्यक्ति समुदाय को संकट में डालता है, तो दया और न्याय के बीच संतुलन साधना अनिवार्य होता है। क्या एक सड़ा हुआ फल संपूर्ण टोकरी को संक्रमित नहीं कर देता? क्या एक दोषपूर्ण ईंट पूरी दीवार को कमजोर नहीं कर देती? उसी प्रकार, एक विकृत सदस्य यदि पूरे कुल को संकट में डालता है, तो उसका त्याग धर्म और नीति दोनों की माँग है।

वस्तुतः त्याग केवल बाह्य नहीं, आंतरिक भी होता है। जब आत्मकल्याण की बात आती है, तो व्यक्ति को अपने मोह, अहंकार, और वासनाओं की 'पृथ्वी' का भी परित्याग करना पड़ता है। केवल बाहरी वस्तुओं का त्याग नहीं, बल्कि अंतर्मन की उन प्रवृत्तियों का भी, जो आत्मा की शुद्धि में बाधक हैं। यही वह स्तर है जहाँ नीति दर्शन केवल व्यवहार नहीं, बल्कि आत्मसाक्षात्कार की दिशा में संकेत देता है।

इस सिद्धांत में एक गहरा राजनैतिक संकेत भी है। कोई राज्य यदि संकीर्ण निजी स्वार्थों के कारण व्यापक सामाजिक संरचना की बलि चढ़ा देता है, तो वह अपने ही अस्तित्व को खोखला कर लेता है। सत्ता वही टिकती है जो त्याग के सिद्धांत पर आधारित हो—व्यक्तिगत नहीं, सार्वजनिक कल्याण की नींव पर।

त्याग का मूल्यांकन केवल 'किसका' त्याग हुआ, इससे नहीं मापा जाता, बल्कि 'किसके लिए' हुआ, यह निर्धारण करता है कि निर्णय न्यायसंगत था या नहीं। यह प्राथमिकताओं की उस सीढ़ी की पुनः पुष्टि करता है जो व्यक्ति से आत्मा तक विस्तृत है, और जिसमें प्रत्येक स्तर पर निर्णय का भार भी उसी अनुपात में गहरा होता जाता है।