श्लोक ०३-०८

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
रूपयौवनसम्पन्ना विशालकुलसम्भवाः ।
विद्याहीना न शोभन्ते निर्गन्धाः किंशुका यथा ॥ ॥०३-०८॥
रूप और यौवन से संपन्न, विशाल कुल में उत्पन्न भी, विद्या से हीन हो तो शोभा नहीं देते, जैसे गंध रहित पलाश के फूल।

मानवीय मूल्य का आकलन बाह्य आडंबरों या जन्मगत परिस्थितियों से नहीं किया जा सकता। कोई व्यक्ति कितना भी आकर्षक रूप, युवावस्था की स्फूर्ति, या उच्च और प्रतिष्ठित परिवार में जन्म क्यों न ले, यदि उसमें वास्तविक विद्या का अभाव है, तो उसका होना या न होना किसी भी प्रकार से सार्थक नहीं होता। यह ठीक वैसे ही है जैसे पलाश का फूल—यह देखने में अत्यंत सुंदर, लाल और आकर्षक होता है, परंतु उसमें स्वाभाविक सुगंध नहीं होती। उसकी सुंदरता मात्र आँखों को भाती है, उसका कोई गहरा या टिकाऊ प्रभाव नहीं होता।

समाज अक्सर बाह्य चमकों और जन्मगत विशेषाधिकारों को महत्व देता है। रूपवान व्यक्ति शीघ्र ध्यान आकर्षित कर सकता है, धनी परिवार का सदस्य सहज ही सम्मान पा सकता है, और प्रभावशाली वंश का होने पर स्वाभाविक रूप से सामाजिक सीढ़ियाँ चढ़ सकता है। ये सब क्षणिक लाभ हो सकते हैं, जो अक्सर सतही होते हैं। असली प्रश्न यह है: क्या ये गुण व्यक्ति को आंतरिक गहराई, चरित्र की दृढ़ता, और ज्ञान का प्रकाश प्रदान करते हैं? उत्तर स्पष्ट है—नहीं। बिना विद्या के, ये सभी बाहरी आवरण व्यर्थ हैं। विद्या वह आंतरिक धन है जो मनुष्य के व्यक्तित्व को पूर्णता प्रदान करता है, उसे विवेकशील बनाता है, और उसे जीवन के वास्तविक मूल्यों से परिचित कराता है।

रूप ढल जाता है, यौवन समाप्त हो जाता है, और जन्मगत प्रतिष्ठा परिस्थितियों के बदलने पर अर्थहीन हो सकती है। लेकिन विद्या एक ऐसा धन है जिसे न चोर चुरा सकता है, न राजा छीन सकता है, और न ही यह बांटने से कम होता है; बल्कि यह बढ़ता ही जाता है। विद्या मनुष्य को कठिनाइयों से लड़ने की क्षमता देती है, उसे सही और गलत का भेद सिखाती है, और उसे समाज में सार्थक योगदान देने योग्य बनाती है। बिना विद्या के व्यक्ति केवल एक खाली पात्र के समान है, चाहे उसका बाहरी रूप कितना भी भव्य क्यों न हो।

इस बात को समझना महत्वपूर्ण है कि यहाँ 'विद्या' का अर्थ केवल पुस्तकीय ज्ञान या उपाधियाँ नहीं है, बल्कि यह ज्ञान, विवेक, समझदारी, नैतिक मूल्य, और जीवन जीने की कला का समग्र रूप है। यह वह आंतरिक प्रकाश है जो व्यक्ति के प्रत्येक कार्य और विचार को प्रकाशित करता है। जिस व्यक्ति में यह विद्या नहीं होती, उसका जीवन उद्देश्यहीन और प्रभावहीन हो जाता है। वह समाज के लिए बोझ बन सकता है या कम से कम कोई सकारात्मक प्रभाव नहीं छोड़ पाता। उसकी स्थिति उस सुंदर परंतु गंधहीन फूल जैसी हो जाती है जो किसी को आकर्षित तो कर सकता है, पर किसी के मन को महका नहीं सकता, किसी पूजा का भाग नहीं बन सकता, या किसी औषधि के रूप में प्रयुक्त नहीं हो सकता। उसकी उपयोगिता सीमित है।

तो क्या बाह्य गुण बिल्कुल महत्वहीन हैं? नहीं, बाह्य गुण जैसे रूप और कुल यदि विद्या के साथ हों, तो सोने में सुगंध की तरह होते हैं। वे व्यक्ति के प्रभाव को बढ़ा सकते हैं, लेकिन वे कभी भी आंतरिक विद्या का विकल्प नहीं हो सकते। विद्या ही वह आधारशिला है जिस पर एक सार्थक जीवन, एक प्रभावी व्यक्तित्व, और समाज के लिए वास्तविक मूल्य का निर्माण होता है। यह उस बीज के समान है जिससे ज्ञान, विवेक और नैतिकता का वृक्ष फलता-फूलता है, जबकि रूप और कुल उस मिट्टी या वातावरण के समान हैं जो सहायक हो सकते हैं, पर बीज के बिना कुछ भी नहीं उग सकता।

इस विचार का गहरा सामाजिक निहितार्थ है। क्या समाज को बाह्य दिखावे और जन्मगत स्थितियों पर ध्यान देना चाहिए, या व्यक्ति के आंतरिक गुणों और ज्ञान पर? एक प्रगतिशील और न्यायपूर्ण समाज वही होता है जो व्यक्ति की योग्यता, विद्या और चरित्र को उसके रूप, धन या कुल से ऊपर रखता है। यह व्यक्ति को उसकी वास्तविक क्षमता के अनुसार पहचान देता है, न कि उसके भाग्य या बाहरी पैकेजिंग के आधार पर। यह दृष्टिकोण न केवल व्यक्तियों के लिए अधिक न्यायसंगत है, बल्कि यह समाज को भी अधिक मजबूत और स्थिर बनाता है, क्योंकि यह वास्तविक क्षमता और ज्ञान को महत्व देता है जो किसी भी राष्ट्र या सभ्यता की नींव होते हैं।