सागरा भेदमिच्छन्ति प्रलयेऽपि न साधवः ॥ ॥०३-०६॥
सच्चे चरित्र की पहचान विपत्ति के समय होती है, जब बाहरी मर्यादाएँ, सामाजिक बंधन और व्यवस्थाएँ टूट जाती हैं। जैसे समुद्र सामान्यतः अपनी सीमाओं में बंधा रहता है, परंतु प्रलय आने पर उसकी मर्यादाएँ समाप्त हो जाती हैं और वह अपने तटों को लांघता है, वैसे ही सामान्य व्यक्ति संकट के समय अपने मूल्यों को छोड़ सकता है। परंतु सज्जन—जिन्हें ‘साधु’ कहा गया है—उनका आचरण ऐसी परिस्थितियों में भी अडिग रहता है।
यह अंतर केवल व्यवहार का नहीं, अंतःकरण की संरचना का होता है। साधु व्यक्ति का अंत:करण उस आंतरिक मर्यादा से संचालित होता है जो बाहरी परिस्थितियों पर आधारित नहीं होती। उनके लिए नैतिकता कोई सामाजिक अनुकूलन नहीं, बल्कि आत्मिक सत्य होता है। इसीलिए, चाहे प्रलय क्यों न हो जाए—प्राकृतिक, सामाजिक या व्यक्तिगत—वे किसी के प्रति भेदभाव, हिंसा या अन्याय की इच्छा नहीं रखते।
समाज में ऐसे लोग दुर्लभ होते हैं जिनकी स्थिरता केवल शांत समयों की कृपा नहीं होती, बल्कि संकट की अग्नि में तपकर पुष्ट हुई होती है। यह स्थिरता आत्मानुशासन, तप, और गहन नैतिक बोध का परिणाम है। जहाँ आमजन भय, लालच या मोह में पड़कर स्वार्थपूर्ण निर्णय लेते हैं, वहीं साधु व्यक्ति धर्म के आलोक में अपनी स्थितप्रज्ञता को बनाए रखते हैं।
वास्तव में, सज्जनों का स्वभाव ऐसा होता है कि वे स्वयं क्षतिग्रस्त हो सकते हैं, पर किसी अन्य के लिए दुर्भाव या अन्याय की कामना नहीं करते। यह केवल उदारता नहीं, बल्कि उस आंतरिक विवेक का परिणाम है जो यह जानता है कि सभी जीवों में एक ही आत्मा का वास है। उनके लिए 'भेद' केवल अज्ञान का परिणाम है, न कि कोई स्वीकार्य यथार्थ।
जब सामाजिक व्यवस्था टूटती है और सब अपनी सीमाओं को पार करते हैं, तब भी सज्जन उसी मर्यादा में रहते हैं जो उनके भीतर की नैतिक चेतना से संचालित होती है। यह चेतना ही उन्हें साधारण से अलग करती है। यह कोई बाहरी नियम नहीं, बल्कि भीतर की निष्कलुष संवेदना है जो सत्य, अहिंसा और समत्व में स्थापित होती है।
ऐसे व्यक्तित्व समाज के लिए स्थायित्व और आशा के प्रतीक होते हैं। वे प्रलय के अंधकार में भी दीपक की तरह जलते रहते हैं, बिना भेद किए, बिना किसी को हानि पहुँचाए, और बिना अपने सिद्धांतों से विचलित हुए।