असाधुजनसम्पर्के यः पलायेत्स जीवति ॥ ॥३-१९॥
जीवन की कठिनतम परिस्थितियाँ जब उत्पन्न होती हैं, तब मनुष्य का अस्तित्व बचाए रखना सबसे बड़ी चुनौती बन जाता है। उपसर्ग (संक्रमण रोग), अन्य चक्र (युद्ध, विद्रोह, राजनीतिक उलटफेर), दुर्भिक्ष (भयंकर अकाल), तथा भयावह स्थिति जैसे संकटों में किसी भी प्रकार के असाधुजन, यानी दुष्ट, पापी या समाज के लिए हानिकारक लोगों के संपर्क में रहना जीवन के लिए अत्यंत खतरनाक सिद्ध हो सकता है।
असाधुजन के संपर्क में रहने से न केवल व्यक्ति की शारीरिक सुरक्षा को खतरा होता है, बल्कि मानसिक और सामाजिक रूप से भी उसका पतन होता है। संकट के समय, जब संसाधन सीमित होते हैं और समाज में अविश्वास और अस्थिरता फैलती है, तब दुष्टजन अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए और अधिक नुकसान कर सकते हैं। ऐसे में उनका संपर्क व्यक्ति के लिए विष समान होता है, जो उसकी स्थिति को और भी दयनीय बना देता है।
जीवित रहने का तात्पर्य केवल शारीरिक अस्तित्व से नहीं है, बल्कि संकट के दौर में सूझ-बूझ और विवेक से निर्णय लेकर अपने और अपने परिवार के कल्याण की रक्षा करना है। दुष्ट लोगों से दूरी बनाए रखने का अर्थ यह भी है कि व्यक्ति अपने लिए और समाज के लिए सही और न्यायसंगत मार्ग चुने। क्योंकि असाधुजन अक्सर भ्रम, धोखा, और हिंसा का स्रोत होते हैं, जो संकट को और गहरा कर देते हैं।
यह सिद्धांत सामरिक और सामाजिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है। युद्ध, अकाल, महामारी जैसी स्थितियाँ स्वाभाविक रूप से भयावह होती हैं, और ऐसे समय में व्यक्तियों के बीच का विश्वास टूट जाता है। इन परिस्थितियों में जो लोग दुष्टों के प्रभाव में आते हैं, वे न केवल अपने लिए बल्कि पूरे समाज के लिए खतरा बन जाते हैं। इसलिए स्वयं की सुरक्षा के लिए उन्हें दूर रहना आवश्यक है।
क्या केवल शारीरिक दूरी ही पर्याप्त है? या असाधुजन के प्रभाव से बचने के लिए मानसिक और नैतिक दृढ़ता भी आवश्यक है? इस प्रश्न से यह स्पष्ट होता है कि संकट के समय व्यक्ति को अपने विवेक, नैतिकता, और सामाजिक जिम्मेदारी के प्रति जागरूक रहना अत्यंत आवश्यक होता है। तब ही वह वास्तविक रूप से जीवित रह सकता है और संकट को पार कर सकता है।