प्राप्ते तु षोडशे वर्षे पुत्रे मित्रवदाचरेत् ॥ ०३-१८॥
मानव जीवन में बाल्यावस्था से युवावस्था तक के चरणों में व्यक्ति के व्यवहार और चरित्र का निर्माण होता है। इस निर्माण के क्रम में प्रत्येक अवधि की अपनी विशेष महत्ता और आवश्यकताएँ होती हैं। पाँच वर्ष का काल ऐसा होता है जिसमें बच्चे को प्रेम, स्नेह और देखभाल की आवश्यकता होती है। यह वह समय होता है जब उसका मन और हृदय संवेदनशील होते हैं; यदि इस अवधि में उसे उचित स्नेह और संरक्षण नहीं मिले तो उसका मनोविकास प्रभावित हो सकता है।
दस वर्ष तक अनुशासन और सख्ती आवश्यक होती है क्योंकि यह वह समय है जब बालक जीवन के नियमों और संस्कारों को सीखता है। अनुशासन के बिना व्यक्ति सामाजिक व्यवस्था में अनुचित व्यवहार कर सकता है, अतः सख्ती से ताड़ना या सुधार करना उसकी सुधारात्मक प्रक्रिया का हिस्सा है। यह सख्ती प्रेम से प्रेरित होनी चाहिए, न कि क्रूरता से।
सोलह वर्ष की आयु पर, बालक अब युवावस्था में प्रवेश करता है जहाँ उसकी बुद्धि और विवेक विकसित हो चुके होते हैं। इस समय उसके साथ मित्रवत् व्यवहार करना चाहिए क्योंकि कठोर अनुशासन या सख्ती से उसके मनोबल और आत्मविश्वास पर विपरीत प्रभाव पड़ सकता है। मित्रता का भाव उसे आत्मनिर्भर, आत्मविश्वासी और खुले मन का बनाता है। इस समय संवाद और समझदारी से सम्बन्ध स्थापित करने से वह सही मार्ग पर अग्रसर होता है।
समाज और परिवार दोनों में यह परिवर्तनात्मक दृष्टिकोण आवश्यक है कि पालन-पोषण में स्नेह, अनुशासन और मित्रता का सम्यक् समन्वय हो। बिना प्रेम के अनुशासन अधूरा और क्रूर हो सकता है, बिना अनुशासन के मित्रता भ्रमपूर्ण और अस्थिर होती है। बालक के व्यक्तित्व निर्माण के लिए यह तीनों तत्व समयानुसार उचित प्रकार से लागू होना अत्यंत आवश्यक है।
यह व्यवस्था केवल बालक के मानसिक और सामाजिक विकास के लिए नहीं, बल्कि जीवन के प्रति उसके दृष्टिकोण और निर्णय-शक्ति के निर्माण के लिए भी आवश्यक है। प्रेम वह आधार है जिसपर बालक आत्मीयता और सुरक्षा महसूस करता है, अनुशासन वह ढांचा है जो उसे नियमों और कर्तव्यों के प्रति सजग बनाता है, और मित्रवत् व्यवहार उसे स्वतंत्रता, सम्मान और संवाद की कला सिखाता है। इन तीनों चरणों का संयोजन एक सम्पूर्ण, संतुलित और सशक्त मनुष्य के निर्माण में सहायक होता है।
यदि इन तीन चरणों में से किसी एक का अभाव हो तो बालक का विकास पक्षाघात ग्रस्त हो सकता है—अत्यधिक स्नेह से लचीला और अनुशासनहीन, अत्यधिक कठोरता से दबा हुआ और भयभीत, और केवल मित्रवत् व्यवहार से अनुशासनहीन तथा असामाजिक। यह क्रम इस प्रकार संतुलित और परिपक्व करना आवश्यक है ताकि बालक स्वस्थ, जिम्मेदार और सामाजिक रूप से जागरूक नागरिक बन सके।