वरमेकः कुलालम्बी यत्र विश्राम्यते कुलम् ॥ ॥१७॥
वंश की निरंतरता और कुल की प्रतिष्ठा केवल संख्या पर निर्भर नहीं करती। अक्सर ऐसा देखा जाता है कि संतान अधिक होने पर भी यदि वे अयोग्य, संस्कारहीन या कुमार्गी हों, तो वे सुख के बजाय केवल दुख, चिंता और अपयश का कारण बनते हैं। ऐसे पुत्रों का होना न होना एक समान है, बल्कि कई बार तो उनका होना कुल के लिए एक बड़ा बोझ और पीड़ा बन जाता है। वे पारिवारिक संपत्ति को नष्ट करते हैं, रिश्तों में कलह पैदा करते हैं, और समाज में कुल का नाम खराब करते हैं। शोक और संताप ऐसे ही पुत्रों की 'देन' होते हैं।
इसके विपरीत, यदि संतान कम हो, मान लीजिए एक ही पुत्र हो, लेकिन वह योग्य, सच्चरित्र, कर्तव्यनिष्ठ और कुल के प्रति समर्पित हो, तो वह अकेले ही पूरे वंश को सहारा दे सकता है। 'कुलालम्बी' होने का अर्थ केवल जैविक वंश को आगे बढ़ाना नहीं है। इसका अर्थ है कुल के आदर्शों, मूल्यों, परंपराओं और संपत्ति की रक्षा करना; वृद्धजनों का सम्मान करना; परिवार के सदस्यों का ध्यान रखना; और अपने कर्मों से कुल की प्रतिष्ठा बढ़ाना। ऐसा पुत्र न केवल अपने परिवार का भरण-पोषण करता है, बल्कि वह आने वाली पीढ़ियों के लिए एक प्रेरणा भी बनता है। उसके रहते परिवार में शांति, स्थिरता और सुरक्षा का भाव रहता है।
यह विचार 'गुण' को 'संख्या' से ऊपर रखता है। समाज में यह भ्रांति अक्सर पाई जाती है कि जितने अधिक पुत्र होंगे, उतना ही कुल मजबूत होगा। परंतु अनुभव और नीतिशास्त्र का ज्ञान बताता है कि गुणवत्ताहीन संख्या व्यर्थ ही नहीं, बल्कि हानिकारक भी हो सकती है। एक समर्थ और नैतिक संतान सैकड़ों असमर्थ और अनैतिक संतानों से कहीं अधिक मूल्यवान है। वंश का 'विश्राम' ऐसे ही योग्य संतान में निहित होता है। इसका मतलब है कि कुल उस पर भरोसा कर सकता है, उसके कंधों पर भविष्य का भार सौंप सकता है, और निश्चिंत होकर रह सकता है। यह एक गहरी सुरक्षा और स्थायित्व की भावना है जो केवल योग्य और कर्तव्यनिष्ठ संतान ही दे सकती है।
क्या यह विचार कन्या संतानों पर भी लागू होता है? निश्चित रूप से, यदि हम इसे संकीर्ण अर्थों में न लें। यद्यपि पारंपरिक सामाजिक संरचना में पुत्र से वंश वृद्धि की अपेक्षा अधिक होती थी, सिद्धांत यह है कि कोई भी संतान, चाहे पुत्र हो या पुत्री, यदि वह योग्य, नैतिक और परिवार के प्रति समर्पित है, तो वह कुल का सहारा बनती है और परिवार को विश्राम दे सकती है। योग्यता और कर्तव्यनिष्ठा लिंग भेद से परे हैं।
इस प्रकार, संतान का वास्तविक महत्व उसकी संख्या में नहीं, बल्कि उसके चरित्र, योग्यता और कुल के प्रति उसके समर्पण में है। एक सुपात्र संतान पूरे वंश को तार सकती है, जबकि कुपात्र संतानें पूरे कुल को डूबा सकती हैं। यह केवल संतान के चुनाव का विषय नहीं है, बल्कि माता-पिता के कर्तव्य का भी है कि वे अपनी संतान को सुसंस्कारित करें ताकि वे 'शोकसन्तापकारक' न होकर 'कुलालम्बी' बन सकें। शिक्षा, संस्कार और उचित मार्गदर्शन संतान को योग्य बनाने के मूल आधार हैं, जो अंततः कुल के कल्याण का मार्ग प्रशस्त करते हैं।