आह्लादितं कुलं सर्वं यथा चन्द्रेण शर्वरी ॥ ०३-१६ ॥
संपूर्ण परिवार या कुल की प्रतिष्ठा और आनन्द का आधार केवल धन, वस्त्र या भौतिक समृद्धि नहीं, बल्कि एक ऐसा पुत्र होता है जो विद्या और सदाचार से युक्त हो। विद्या केवल ज्ञान ही नहीं, बल्कि नैतिकता, संस्कार और व्यवहारिक बुद्धिमत्ता भी है। जब पुत्र में ये गुण समाहित होते हैं, तो वह परिवार की समृद्धि और गौरव का कारण बनता है।
जैसे चंद्रमा की उपस्थिति से रात शर्वरी (अर्थात् पूर्णता, शांति और सौंदर्य) प्राप्त करती है, वैसे ही सज्जन पुत्र की उपस्थिति से संपूर्ण कुल आलोकित और आनन्दित होता है। यहां चंद्रमा और शर्वरी का अनुपम सादृश्य परिवार में पुत्र के महत्व को दर्शाता है, जो अन्धकारमय स्थिति में उजाले का स्रोत होता है।
यह विचार मात्र भौतिक विरासत की महत्ता को कमतर आंकता है और नैतिक व बौद्धिक विरासत की प्रधानता को उजागर करता है। पुत्र का सद्गुण कुल के लिए अमूल्य निधि है, जो आने वाली पीढ़ियों तक सामाजिक प्रतिष्ठा और संस्कारों को बनाए रखता है।
इसके अतिरिक्त, विद्या और साधुता का संयुक्त प्रभाव परिवार को सदैव श्रेष्ठता, सम्मान और स्थायित्व प्रदान करता है। एक सज्जन पुत्र का होना सामाजिक और आध्यात्मिक दृष्टि से एक कुल के पुनर्जागरण का संकेत है।
यह तथ्य भी चिंतन योग्य है कि पुत्र का केवल रक्त संबंध होना पर्याप्त नहीं, उसकी विद्या और सदाचार से युक्तता ही कुल के सम्मान और आनन्द का मूल कारण है। ऐसी दृष्टि से, शिक्षा और संस्कारों को परिवार के सर्वोच्च धरोहर के रूप में देखा जाना चाहिए।