श्लोक ०३-१५

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
एकेन शुष्कवृक्षेण दह्यमानेन वह्निना ।
दह्यते तद्वनं सर्वं कुपुत्रेण कुलं यथा ॥ ०३-१५॥
जैसे एक सूखे वृक्ष को जलाने वाली अग्नि पूरे वन को भस्म कर देती है, वैसे ही एक कुपुत्र अपने कुल (परिवार) को नष्ट कर देता है।

यह विचार स्पष्ट करता है कि एक अकेला नकारात्मक तत्व सम्पूर्ण व्यवस्था को विध्वंसित कर सकता है। सूखा वृक्ष, जो स्वयं निर्जीव और असहाय होता है, यदि आग पकड़ ले, तो वह उसकी तीव्रता और प्रभाव से संपूर्ण वन को जलाकर राख कर सकता है। इसी प्रकार, एक कुपुत्र, जो परिवार या कुल के लिए हानिकारक होता है, अपनी नकारात्मक प्रवृत्ति, कुकर्मों और कुप्रबंधन से सम्पूर्ण परिवार के सामाजिक, आर्थिक और नैतिक स्तंभों को क्षति पहुँचाता है।

कुल की अखंडता और सामाजिक प्रतिष्ठा परिवार के सदस्यों की समग्र आचार-व्यवहार, संस्कार और सामाजिक योगदानों पर निर्भर होती है। एक भी सदस्य, विशेषकर पुत्र जो परंपरा और परिवार की प्रतिष्ठा को आगे बढ़ाने का दायित्व रखता है, यदि वह अनाचार, पाप या कलुषता में लिप्त हो, तो वह पूरे कुल की छवि धूमिल कर देता है।

यह तथ्य हमें व्यक्तिगत कर्तव्य और सामाजिक उत्तरदायित्व के बीच के अतल गहरे संबंध की चेतना देता है। कुपुत्र केवल स्वयं के लिए नहीं बल्कि पूरे कुल के लिए अभिशाप बन सकता है। यह एक यथार्थवाद है जो सामाजिक संरचनाओं की नाजुकता को समझाता है।

यह स्थिति हमारे समक्ष प्रश्न खड़ा करती है कि क्या परिवार का अस्तित्व केवल सदस्यों की संख्या से होता है या उनके आचरण और गुणों से भी? एकता और सम्मान के बिना संख्या निरर्थक है। इसलिए, कुपुत्र के रूप में अभिशप्त व्यक्ति परिवार के लिए आग की तरह है, जो अपनी ज्वाला से सम्पूर्ण समुदाय को विनष्ट कर देता है।

समाज में नैतिक पतन का यह सूचक है कि एक भी व्यक्तित्व की दुष्टता संपूर्ण सामाजिक ताने-बाने को प्रभावित कर सकती है। कुपुत्र की दुष्टता केवल पारिवारिक कष्ट नहीं, बल्कि सामाजिक पतन की शुरुआत भी होती है। परिवार की परंपराओं और संस्कारों का रखरखाव इसीलिए अनिवार्य है ताकि ऐसी आग को पहले ही बुझा दिया जाए।