श्लोक ०३-१४

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
एकेनापि सुवृक्षेण पुष्पितेन सुगन्धिना ।
वासितं तद्वनं सर्वं सुपुत्रेण कुलं यथा ॥ ०३-१४॥
जैसे एक ही सुगंधित और पुष्पित उत्तम वृक्ष से पूरा वन सुगंधित हो जाता है, वैसे ही एक उत्तम पुत्र से पूरा कुल सुगंधित हो जाता है।

किसी कुल की प्रतिष्ठा, गौरव और पहचान अक्सर उसकी संपत्ति या बाह्य उपलब्धियों से नहीं, बल्कि उसमें जन्मे उन व्यक्तियों से होती है जो अपने गुणों, चरित्र और कर्मों से समाज में एक सुगंध का संचार करते हैं। एक कुल में यदि एक भी उत्तम पुत्र जन्म ले, जो सद्गुणों से युक्त हो, तो वह अकेला ही पूरे कुल के लिए यश और सम्मान का कारण बन सकता है, जैसे एक सुगंधित वृक्ष पूरे वन को महका देता है।

यह उपमा केवल प्रशंसा नहीं, बल्कि यह एक तीव्र नैतिक संकेत भी है कि संतान का गुणी होना केवल व्यक्तिगत उपलब्धि नहीं, बल्कि वंश की गरिमा और सामाजिक छवि को भी प्रभावित करता है। एक व्यक्ति का उत्तम आचरण उसके पूर्वजों को यश दिलाता है, वर्तमान को गौरव देता है और भविष्य की पीढ़ियों के लिए प्रेरणा बनता है। वही दूसरी ओर, कुपुत्र कुल की मर्यादा को धूमिल कर सकता है।

सुगंध फैलाने वाला वृक्ष स्वयं तो सुंदर होता ही है, पर साथ ही वह अपने आसपास के वातावरण को भी महकाता है। उसी प्रकार एक उत्तम पुत्र अपने आचरण से न केवल स्वयं को उन्नत करता है, बल्कि अपने परिवार, समुदाय और राष्ट्र को भी ऊँचाई प्रदान करता है। उसकी विद्या, नीति, दया, परिश्रम, और कर्तव्यनिष्ठा समाज में एक ऐसी सुगंध छोड़ती है जो पीढ़ियों तक बनी रहती है।

यह प्रश्न महत्वपूर्ण है कि कुल के भीतर ऐसे उत्तम पुत्र का जन्म कैसे हो? यह केवल संयोग नहीं, बल्कि उसे बचपन से दिए गए संस्कारों, शिक्षा, अनुशासन, और आदर्शों का परिणाम होता है। परिवार और समाज को यह समझना चाहिए कि यदि वे अपने वंश की दीर्घकालिक प्रतिष्ठा चाहते हैं, तो उन्हें अपने बच्चों में सद्गुणों का बीजारोपण करना होगा।

ऐसे उत्तम पुत्रों की उपस्थिति समाज के लिए दिशा-संकेतक होती है। वे केवल व्यक्तिगत जीवन में नहीं, बल्कि सार्वजनिक जीवन में भी मर्यादा, न्याय और कर्तव्य के प्रतीक बन जाते हैं। उनकी उपस्थिति सामाजिक वन को सुगंधित करती है — जैसे वसंत ऋतु में एक पुष्पित वृक्ष पूरे वन का सौंदर्य बन जाता है।

परिवारों को यह गहराई से समझना होगा कि एक उत्तम पुत्र की उपलब्धि मात्र उसकी नहीं होती; यह पूरे कुल के आत्मबल, संस्कार और नैतिकता की परिचायक होती है। अतः कुल की प्रतिष्ठा को अक्षुण्ण रखने का उपाय एक ही है — ऐसे उत्तम पुत्रों का निर्माण।