श्लोक ०३-१२

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
अतिरूपेण वा सीता अतिगर्वेण रावणः ।
अतिदानाद्बलिर्बद्धो ह्यतिसर्वत्र वर्जयेत् ॥ ॥१२॥
अत्यधिक रूप के कारण सीता, अत्यधिक गर्व के कारण रावण, और अत्यधिक दान के कारण बलि बंधन में पड़े; इसलिए अति को सभी स्थानों पर त्याग देना चाहिए।

जीवन में संतुलन की अवधारणा केवल एक नैतिक विचार नहीं, बल्कि व्यवहारिक बुद्धिमत्ता की अनिवार्य आवश्यकता है। जब कोई गुण अपनी मर्यादा लांघता है, तो वह दोष में परिवर्तित हो जाता है — यही 'अति' की चेतावनी है। रूप, गर्व, दान — ये सभी सकारात्मक माने जाते हैं, लेकिन जब इनका विस्तार मर्यादा से बाहर हो जाता है, तो विनाश की भूमिका बनती है।

रूप मोह पैदा करता है, और अत्यधिक रूप — चाहे वह स्त्री का हो या पुरुष का — अक्सर अहंकार, ईर्ष्या और दुराग्रह को जन्म देता है। यही आकर्षण कभी-कभी पतन का कारण बनता है, क्योंकि वह विवेक पर हावी हो जाता है। मनुष्य सौंदर्य को साधन की बजाय साध्य मान लेता है, और इसी भ्रम में वह नैतिक मूल्यों की उपेक्षा करता है।

गर्व, यदि सीमित हो तो आत्मविश्वास का संकेत है, लेकिन 'अतिगर्व' आत्ममुग्धता बन जाता है। यह व्यक्ति को यथार्थ से काट देता है, आलोचना से असहिष्णु बना देता है और पराजय के संकेतों को अनदेखा करवा देता है। जब व्यक्ति यह मान लेता है कि वह अपराजेय है, तो उसका पतन अवश्यंभावी हो जाता है। इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा है जहाँ 'अतिगर्व' ने साम्राज्यों को ढहा दिया।

दान, एक पुण्य कर्म है, परंतु 'अतिदान'— बिना विवेक के, बिना परिणामों की समीक्षा के — अक्सर शोषण या आत्मविनाश का माध्यम बनता है। जब दानकर्त्ता स्वयं निर्बल हो जाए, या जब दान अनावश्यक और अनियंत्रित हो जाए, तो वह समाज की शक्ति-संरचना को ही विकृत कर देता है। सीमाहीन दान आत्मसम्मान की क्षति और व्यावहारिक संकट का कारण बन सकता है।

'अति' वह बिंदु है जहाँ गुण अपनी सकारात्मकता खोकर विकृति बन जाता है। यह चेतावनी केवल व्यक्तिगत जीवन के लिए नहीं, बल्कि शासन, समाज और नीति के हर स्तर पर लागू होती है। कोई भी तत्त्व — चाहे वह ज्ञान हो, शक्ति, प्रेम या स्वतंत्रता — यदि अति हो जाए, तो वह नियंत्रण की सीमा तोड़कर विनाश का मार्ग खोल देता है। यही कारण है कि भारतीय दर्शन में 'मध्यमार्ग' को सर्वोच्च माना गया है — न बहुत कम, न बहुत अधिक।

यह प्रश्न उठता है कि क्या कोई भी गुण इतना भी हानिकारक हो सकता है कि वह बंधन और पतन का कारण बने? उत्तर है — हाँ, यदि वह 'अति' बन जाए। गुण और दोष के बीच की रेखा स्थूल नहीं होती, वह अत्यंत सूक्ष्म होती है और विवेक के बिना दिखाई नहीं देती। 'अति सर्वत्र वर्जयेत्' एक सार्वभौमिक सिद्धांत है, जो बताता है कि आत्मसंयम, विवेक, और मर्यादा ही स्थायित्व का आधार हैं।