श्लोक ०३-०१

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
कस्य दोषः कुले नास्ति व्याधिना को न पीडितः ।
व्यसनं केन न प्राप्तं कस्य सौख्यं निरन्तरम् ॥ ०३-०१॥
कौन-से कुल में दोष नहीं है? कौन रोग से पीड़ित नहीं होता? किसने आपत्ति नहीं झेली है? किसका सुख सदा बना रहता है?

संसार की प्रकृति ही परिवर्तनशील और अपूर्णता से युक्त है। मानव जीवन में दोष, रोग, आपत्ति और दुःख अपरिहार्य हैं। कोई भी कुल पूर्णतः निर्दोष नहीं होता; प्रत्येक वंश में कुछ-न-कुछ कमी, अपूर्णता या भूल रही होती है। यह मान लेना कि किसी का पारिवारिक, सामाजिक या वंशानुक्रमिक आधार शुद्ध और निष्कलंक है — एक भ्रांति है जो अहंकार या अज्ञान से उपजती है। यही बात शारीरिक स्वास्थ्य पर लागू होती है। कोई भी व्यक्ति जीवन भर रोगों से पूर्णतः मुक्त नहीं रह सकता; शरीर का स्वभाव ही क्षयशील है, और उसमें विकार उत्पन्न होते ही रहते हैं।

जीवन में संकट, कठिनाइयाँ और व्यसन (आपत्तियाँ) सभी को किसी-न-किसी रूप में प्राप्त होती हैं। ये केवल दुर्भाग्यशाली या अयोग्य व्यक्तियों की अनुभूति नहीं हैं, बल्कि समस्त मानवता की साझी वास्तविकता हैं। इन्हीं अनुभवों के माध्यम से मनुष्य का चरित्र, सहनशीलता और विवेक परखा जाता है। यदि कोई अपने जीवन को केवल सुख की निरंतरता की आशा में जीता है, तो वह भ्रम में है। सुख क्षणिक होता है, और निरंतर सुख की कल्पना जीवन के यथार्थ से मुँह मोड़ने के समान है।

इस दृष्टिकोण का गहरा नैतिक प्रभाव यह है कि किसी के दोष, रोग या संकट को देखकर उसे हेय या तुच्छ नहीं समझना चाहिए। यह सब सामान्य मानवीय अनुभव हैं। जो व्यक्ति दूसरों के प्रति सहानुभूति और समझ नहीं रखता, वह स्वयं भी जब कठिनाई में पड़ता है तो अकेला और असहाय अनुभव करता है। सामाजिक समरसता इसी चेतना से उत्पन्न होती है कि सभी मनुष्य अपूर्ण हैं, और जीवन में सभी को कष्टों का सामना करना पड़ता है।

साथ ही, यह विचार अहंकार के विघटन में सहायक है। यदि व्यक्ति यह सोचता है कि उसके कुल में कोई दोष नहीं, वह कभी रोगी नहीं पड़ा, या उसने कभी व्यसन नहीं झेला, तो यह केवल अज्ञानजन्य आत्ममोह है। जब तक जीवन है, तब तक इन अस्थिरताओं से मुक्ति संभव नहीं। वास्तविक समझदार वही है जो इस अस्थिरता को स्वीकार कर लेता है, और उसी के अनुसार अपने जीवन का दृष्टिकोण बनाता है — न तो सुख में अति गर्व करता है, न दुःख में पूरी तरह टूटता है।

इस समझ से करुणा, सहिष्णुता और आत्मविनम्रता जैसे गुण विकसित होते हैं, जो किसी भी समाज की स्थिरता और नैतिकता के लिए आवश्यक हैं। जीवन की अपूर्णता को स्वीकार कर जो व्यक्ति संतुलन और विवेक से कार्य करता है, वही वास्तव में सभ्य और नीतिज्ञ कहलाने योग्य होता है।