कष्टात्कष्टतरं चैव परगेहनिवासनम् ॥ ॥०२-०८॥
जीवन में अनेक कठिनाइयाँ आती हैं, परंतु उनमें सबसे कष्टप्रद और असह्य वह है जो परदेश में रहने का दुःख है। मूर्खता और यौवन अपने-अपने प्रकार से जीवन को चुनौतीपूर्ण बनाते हैं, किन्तु परदेशवास की पीड़ा उनसे कहीं अधिक तीव्र और निरंतर होती है।
मूर्खता व्यक्ति को ज्ञान और विवेक की कमी से जूझने पर विवश करती है, जिससे अनेक समस्याएँ जन्म लेती हैं। यौवन काल शारीरिक और मानसिक परिवर्तनों का समय होता है, जो स्वाभाविक रूप से संघर्षपूर्ण रहता है। फिर भी ये दोनों जीवन के स्वाभाविक अंग हैं, जिनसे निपटना संभव होता है।
परदेश में निवास का अर्थ होता है अपने स्वदेश, परिवार, संस्कार और परिचित वातावरण से दूर होना। यह मानसिक और भावनात्मक रूप से अत्यंत कष्टकारी होता है क्योंकि व्यक्ति को सांस्कृतिक, सामाजिक और भावनात्मक रूप से अज्ञात और असहज परिवेश में जीना पड़ता है।
परदेशवास में व्यक्ति को न केवल अकेलापन सहना पड़ता है, बल्कि पहचान, सम्मान और सुरक्षा के लिए भी निरंतर संघर्ष करना पड़ता है। यह स्थिति व्यक्ति के मनोबल को गिराती है और अनेक बार अस्तित्व की लड़ाई तक में उलझा देती है।
ऐसे में परदेशवास को सबसे कठिन परिस्थिति माना जाता है क्योंकि यह व्यक्ति के सम्पूर्ण अस्तित्व और मानसिक संतुलन को चुनौती देता है। मूर्खता और यौवन भी कठिन हैं, पर वे क्षणिक और स्वाभाविक बाधाएँ हैं, जबकि परदेशवास दीर्घकालिक और गहन पीड़ा का कारण बनता है।
इसलिए, जीवन की इन तीन अवस्थाओं में परदेश में रहने की पीड़ा को सबसे अधिक कठिन माना जाना स्वाभाविक है। यह अनुभव अनेक ऐतिहासिक, सामाजिक और व्यक्तिगत कहानियों में भी स्पष्ट रूप से दिखता है कि परदेशवास की कठिनाइयाँ जीवन के सभी पक्षों को प्रभावित करती हैं और व्यक्ति के अस्तित्व की सीमा पर सवाल उठाती हैं।