मित्रता में सतर्कता आवश्यक है, क्योंकि मित्र केवल अपने द्वारा निष्ठावान एवं हितकारी होना चाहिए, अन्यथा वह हानिकारक सिद्ध हो सकता है। जब कोई मित्र अपनी छुपी हुई मंशा से परोक्ष रूप से आपके कार्यों का विनाश करने का प्रयास करता है, परंतु प्रत्यक्ष रूप में प्रियभाषी बनकर आपकी भलाई का आभास देता है, तो ऐसे मित्र का सम्बन्ध धोखाधड़ीपूर्ण होता है।
विषकुम्भ अर्थात् विष के पात्र की उपमा यहाँ अत्यंत सूक्ष्मता से मित्र के मुखमधुरता के पीछे छुपे विषाक्त भाव को प्रकट करती है। यथा विषकुम्भ का मुख भले ही शुद्ध प्रतीत हो, परन्तु वह विष से पूर्ण होता है, एवं पयोमुख अर्थात् जो मुख से केवल मधुर वचन प्रकट करता है, परन्तु हानिकारक होता है। इस प्रकार, वास्तविक मित्रता उस व्यक्ति से होती है जो अपने वचनों और कृत्यों दोनों में समान होता है, न कि जो केवल वचनों द्वारा प्रेम प्रकट करता है परन्तु हानिकारक हो।
सामाजिक एवं दार्शनिक दृष्टि से, मित्रता में विश्वास एवं सत्यता परम आवश्यक हैं। मित्रता के संदर्भ में यह सतर्कता न केवल व्यक्तिगत जीवन में, वरन् सामाजिक व राजनैतिक संदर्भों में भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि ऐसे मित्र जो बाह्यतः प्रियभाषी होते हैं पर आन्तरिकतः हानिकारक, वे व्यक्तिगत और सामूहिक दोनों स्तरों पर विनाशकारी सिद्ध हो सकते हैं।
यह विचार मित्रता की प्रकृति, वचन और कर्म के संबंध, तथा विश्वसनीयता की दार्शनिक विवेचना से भी गहरा सम्बद्ध है। मित्रता में सत्यमेव तथा हितकारी कर्म का होना आवश्यक है, न केवल मधुर वचन।