मन्त्रहीनाश्च राजानः शीघ्रं नश्यन्त्यसंशयम् ॥ ॥०२-१५॥
जलप्रवाह के तट पर स्थित वृक्षों की जड़ें स्थिर भूमि के अभाव में धीरे-धीरे क्षीण होती जाती हैं। उनके चारों ओर की मिट्टी निरंतर बहती रहती है, जिससे वे उखड़ने के निकट पहुंच जाते हैं। उनके जीवन का आधार ही सुदृढ़ नहीं होता। जो दिखने में हरे-भरे, छायादायक एवं दृढ़ प्रतीत होते हैं, वे वास्तव में नाजुक स्थिति में खड़े होते हैं, क्योंकि उनके मूल स्तंभ—मूल पल-पल क्षरणशील होते हैं। यह स्थिति केवल वृक्षों की नहीं, बल्कि उन समस्त संस्थाओं, प्रणालियों और व्यक्तियों की होती है, जिनका आधार स्थायित्वविहीन, परिवर्तनशील या पराधीन होता है। इस स्थिति को विस्तारित कर विचार किया जाए तो यह उन व्यक्तियों और संस्थाओं पर भी लागू होती है, जो बाह्य रूप से सामर्थ्यवान तो प्रतीत होते हैं, परंतु उनका आधार या तो कमजोर होता है या पूर्णतः किसी अस्थिर परिस्थिति पर टिका होता है।
दूसरी ओर, जो वस्तु पर-स्वामित्व में होती है, उसका उपयोग करने वाला मनुष्य उसका लाभ तो उठा सकता है, परंतु उस पर अधिकार का अनुभव नहीं कर सकता। यथा किसी अन्य के भवन में निवास करने वाली स्त्री, जो अपनी इच्छाओं, आकांक्षाओं और सहज स्वभाव को पूर्णतः प्रकट नहीं कर सकती। उसके लिए वह भवन केवल निवास का स्थान है, परंतु वह न तो आत्मीयता का भाव उत्पन्न कर सकती है, न ही अपने निर्णयों में स्वतंत्र हो सकती है। वहां उसकी स्थिति पराधीनता की होती है, जहाँ उसे अपने अस्तित्व को सीमाओं में बाँधना पड़ता है। पराधीन सौंदर्य, चाहे जितना भी आकर्षक क्यों न हो, उसकी शक्ति सदा सीमित होती है। जैसे नदी के प्रवाह में खड़े वृक्ष का सौंदर्य संकट में है, वैसे ही परगृहवासी कामिनी की स्थिति भी आत्मनियंत्रण से विहीन होती है।
तीसरे प्रकार की अस्थिरता सत्ता से जुड़ी है। राजा, जो मंत्रणा से विहीन हो, वह स्वयं का पतन सुनिश्चित करता है। क्योंकि शासन का मूलतत्त्व सामूहिक विवेक में निहित है, केवल एक व्यक्ति की इच्छानुसार चलने वाला शासन न तो न्याय सुनिश्चित कर सकता है, न ही दीर्घकालिक स्थायित्व। मंत्रणा केवल औपचारिक परामर्श नहीं, अपितु नीति, सामर्थ्य और दूरदृष्टि का संगम होती है। जहाँ यह तत्व अनुपस्थित होता है, वहाँ निर्णय मनमानी में परिवर्तित हो जाते हैं, जिससे शासनभ्रंश की गति तेज हो जाती है। इतिहास में ऐसे असंख्य उदाहरण हैं जहाँ तानाशाही प्रवृत्ति अथवा अदूरदर्शिता से युक्त शासक अपने राज्य की नींव को खोखला कर देते हैं।
तीनों दृष्टान्तों में एक गूढ़ सूत्र समाहित है — जड़ की शक्ति के बिना बाह्य स्वरूप व्यर्थ है। चाहे वह वृक्ष हो, नारी हो, अथवा राजा। पराधीनता, अस्थिरता और अविवेक—ये तीनों तत्त्व शीघ्र नाश का कारण बनते हैं।
वृक्ष की भौगोलिक उपमा और राजनीतिक दृष्टान्त
नदी के किनारे स्थित वृक्ष, जो अपनी उपस्थिति में सौंदर्य और उपयोगिता दोनों के प्रतीक हैं, वास्तव में क्षणभंगुर होते हैं। उनके नीचे की भूमि सतत् प्रवाहित जल द्वारा कटती रहती है, जिससे वे कभी भी गिर सकते हैं। यह उपमा शासन और समाज की उन संस्थाओं पर लागू होती है, जो भले ही बलिष्ठ प्रतीत हों, परंतु जिनका आधारभूत ढाँचा सुदृढ़ नहीं होता। जल के सतत प्रवाह की तरह, समाज में भी विचारधाराओं, जनाकांक्षाओं, और नीतियों का प्रवाह निरंतर चलता रहता है। यदि कोई संस्था इस प्रवाह के प्रभाव को नहीं समझती, और स्वयं को अनुकूलित नहीं करती, तो उसका विनाश अनिवार्य हो जाता है। केवल अपनी ऊँचाई पर गर्व करने वाले वृक्ष की भांति, केवल सत्ता के पद पर आरूढ़ व्यक्ति, यदि वह आधाररहित हो, तो वह समय की धारा में बह जाता है।
स्वामित्वविहीन सौंदर्य और अस्तित्व की सीमाएँ
परगृहस्थिता में स्थित स्त्री का चित्रण केवल सामाजिक व्यवस्था की आलोचना नहीं, बल्कि अस्तित्व के उस संकट को रेखांकित करता है, जहाँ किसी व्यक्ति को अपने अधीन परिस्थितियों में जीना पड़ता है। ऐसे जीवन में आत्मनिर्णय की स्वतंत्रता नहीं होती, और व्यक्ति मात्र वस्तु-सदृश उपयोग का विषय बन जाता है। यहाँ सौंदर्य है, आकांक्षा है, परंतु वह अपने स्वरूप को पूर्णतः प्रकट नहीं कर सकती, क्योंकि वह उस भूमि की नहीं जहाँ वह स्थित है। पराधीनता का यह सूक्ष्म रूप—जिसे प्रत्यक्षतः कई बार सौंदर्य और सुविधा के रूप में देखा जाता है—वास्तव में एक गहन मानसिक एवं सामाजिक बन्धन है।
यह संकेत करता है कि किसी भी वस्तु, व्यक्ति या शक्ति का वास्तविक मूल्य तब ही होता है जब वह आत्मनिर्भर, स्वाधीन एवं नियंत्रणयुक्त हो। अन्यथा, चाहे वह कितना भी आकर्षक क्यों न प्रतीत हो, वह केवल भ्रम का रूप है, जिसमें शक्ति नहीं, केवल प्रस्तुति है। दर्शनशास्त्र में यह अस्तित्वगत स्वत्व की धारणा को स्पर्श करता है—जहाँ अस्तित्व का मूल्य केवल उपस्थिति में नहीं, अपितु उसकी पूर्णता और स्वतंत्रता में होता है।
अविवेकपूर्ण सत्ता का अन्तर्निहित विनाश
शासन शक्ति का प्रयोग मात्र नहीं, अपितु उत्तरदायित्व का सबसे बड़ा रूप है। जब यह उत्तरदायित्व केवल एक व्यक्ति के अहंकार, भय या अनभिज्ञता पर आधारित होता है, तब शासन की गति केवल विनाश की ओर होती है। मंत्रणा वह प्रक्रिया है जो सत्ता को विवेक देती है—वैकल्पिक विचार, आलोचनात्मक दृष्टिकोण, और दीर्घकालिक दृष्टि उसी से जन्म लेती है। जब शासक इसे अस्वीकार करता है, वह केवल अपनी सीमित दृष्टि से कार्य करता है, तो उसका पतन निश्चित हो जाता है।
ऐसे निर्णय, जो तात्कालिक लाभ, निजी अहं या व्यक्तिगत विचारों पर आधारित हों, जनहित से विमुख हो जाते हैं। शासन की सफलता सामूहिक विचार की परिपक्वता पर निर्भर होती है, न कि एकमात्र नेतृत्व की इच्छा पर। इसलिए, मंत्रविहीन सत्ता केवल स्वेच्छाचार का रूप होती है—जिसका परिणाम अराजकता, असंतोष और अंततः सत्ता का विनाश होता है। यह स्थिति उन अधिनायकों की भी होती है जो केवल चाटुकारों से घिरे होते हैं, और वास्तविक नीति की ओर उनकी दृष्टि नहीं होती। वे अनुग्रह चाहते हैं, पर सत्य नहीं। वे पुष्टि चाहते हैं, पर आलोचना से डरते हैं।
इस प्रकार, शासन का केन्द्र यदि आत्ममुग्धता बन जाए, तो वह स्वयं ही अपने पतन का बीज बो देता है। जैसे उपेक्षित वृक्ष अंततः गिरता है, जैसे परगृहवासी स्त्री आत्मसात् नहीं हो सकती, वैसे ही अविवेकपूर्ण राजा अपने राज्य को संगठित नहीं रख सकता।
तीनों उपमाओं में अंतःसंबंध
तीनों दृष्टांत—वृक्ष, स्त्री, और राजा—तीन भिन्न क्षेत्रों के प्रतीक हैं: प्राकृतिक, सामाजिक और राजनीतिक। फिर भी, इन तीनों में एक सामान्य सूत्र है: अस्थिर आधार, पराधीन स्थिति, और विवेकशून्यता। ये तीन कारक किसी भी प्रणाली, सत्ता, या व्यक्ति के पतन का कारण बनते हैं।
- वृक्ष प्रकृति में है, परन्तु यदि वह जड़हीन है, तो उसका सौंदर्य व्यर्थ है।
- स्त्री सामाजिक संस्था में है, परन्तु यदि वह आत्मनिर्भर नहीं, तो उसकी स्वतंत्रता प्रतिबंधित है।
- राजा सत्ता का प्रतिनिधि है, परंतु यदि वह विवेक से रहित है, तो उसका शासन विफल है।
इन तीनों उपमाओं से यह बोध होता है कि कोई भी शक्ति—प्राकृतिक हो, सामाजिक हो, या राजनीतिक—यदि वह अपने आधार में सुदृढ़ नहीं, तो वह शीघ ्र नष्ट हो जाती है। अस्तित्व की स्थिरता केवल बाह्य रूप, सौंदर्य, अथवा सत्ता से नहीं आती; वह आती है आन्तरिक समन्वय, स्वतंत्रता और विवेक से।
दर्शनशास्त्र की भाषा में कहें तो, इन तीनों दृष्टांतों के केन्द्र में “आधारभूत सत्ता” की अवधारणा निहित है। जब तक कोई भी अस्तित्व अपने आधार में स्थिर नहीं होता, तब तक वह केवल अस्थायी होता है, चाहे उसका रूप कितना ही प्रभावशाली क्यों न हो।
इस प्रकार, वास्तविक शक्ति वह है, जो भीतर से सशक्त हो—जिसकी जड़ें गहरी हों, जो आत्मनिर्भर हो, और जो विवेकशील हो। अन्यथा, शक्ति का कोई भी रूप—वृक्ष की ऊंचाई, सौंदर्य की आकृति या राज्य की सत्ता—सिर्फ़ पतन की ओर अग्रसर होता है।