दारिद्र्यभावाद्विमुखं च मित्रं विनाग्निना पञ्च दहन्ति कायम् ॥ ॥०२-१४॥
कान्तावियोगः — जीवन के उस आयाम की ओर संकेत करता है जहाँ प्रेम, स्नेह और आत्मीयता का गहरा सम्बन्ध उपस्थित होता है, परन्तु उसमें विछोह उत्पन्न हो जाता है। यह केवल भौतिक दूरी का नहीं, अपितु भावनात्मक रिक्तता का द्योतक है। जब कोई अत्यन्त प्रिय, जिससे आत्मा तक का गहरा सम्बन्ध हो, किसी कारणवश जीवन से दूर हो जाता है, तब शरीर केवल हाड़-मांस का ढांचा रह जाता है; उसका सार, उसकी प्राणवत्ता जैसे विलीन हो जाती है। यह वेदना, कोई बाह्य पीड़ा नहीं, अपितु आन्तरिक तपन है जो प्रत्येक क्षण हृदय को झुलसाती है। व्यक्ति चाहे सामाजिक दृष्टि से कितना भी सफल हो, किन्तु उस अन्तर्यामी रिक्तता के सम्मुख सब उपलब्धियाँ शून्य प्रतीत होती हैं। आत्मीय सम्बन्धों की अनुपस्थिति, मनुष्य को सूखे वृक्ष की भाँति बना देती है जो बाहर से खड़ा तो दिखता है परन्तु भीतर से मुरझाया हुआ होता है।
स्वजनापमानम् — जब वे लोग जिन्हें हम 'अपने' कहते हैं, अपमान करें, तो वह अपमान सामान्य नहीं रहता। शत्रु का अपमान केवल अहं को चोट पहुँचाता है, परन्तु स्वजन का अपमान आत्मा को विदीर्ण कर देता है। जिनके सामने हम निःसंकोच अपना ह्रदय खोलते हैं, जिन पर पूर्ण विश्वास करते हैं, उन्हीं से जब तिरस्कार या लज्जाजनक व्यवहार मिलता है, तो वह व्यक्ति की गरिमा को नहीं, उसके अस्तित्व की भावना को भी हिला देता है। यह अनुभूति सामाजिक से अधिक आध्यात्मिक है — जैसे आत्मीयता का मूल्य ही टूट जाए। यह केवल अपमान नहीं, विश्वासघात है, और विश्वासघात केवल वाणी या आचरण से नहीं, आत्मीयता के मूल को नष्ट करनेवाला होता है। वहाँ से मनुष्य न केवल दूसरों से, अपितु स्वयं से भी सन्देह करना प्रारम्भ कर देता है।
ऋणस्य शेषम् — ऋण, चाहे वित्तीय हो, नैतिक हो या भावनात्मक — यदि पूर्णतः समाप्त न किया जाए, तो वह मनुष्य की आत्मशान्ति का सर्वदा अपहरण करता रहता है। शेष ऋण केवल देय राशि नहीं, एक ऐसा भार है जो हर क्षण चेतना को दबाता है। ऋण का शेष भाग एक प्रकार का प्रतीक बन जाता है अधूरे उत्तरदायित्व का, एक ऐसी डोर का, जो व्यक्ति को हर कार्य में बाँधती है, जिससे वह कभी पूर्ण रूप से मुक्त नहीं हो पाता। यही अधूरापन, असमाप्तता की पीड़ा, जीवन के प्रत्येक निर्णय और अनुभव में एक अनिश्चितता और सन्देह उत्पन्न करता है। ऋण का शेष एक निरन्तर स्मरण है कि व्यक्ति का अस्तित्व अभी स्वतंत्र नहीं है, वह अभी भी किसी अदृश्य शक्ति से बंधा हुआ है — यह बन्धन चाहे बैंक का हो, आत्मा का हो या किसी सामाजिक सम्बन्ध का।
कुनृपस्य सेवा — अधम, दुर्बुद्धि अथवा अन्यायप्रिय शासक की सेवा, केवल एक दास्य नहीं अपितु आत्मविनाश की भूमिका है। यदि किसी व्यक्ति की आजीविका या प्रतिष्ठा ऐसे व्यक्ति पर आधारित हो, जिसकी नीति, नैतिकता या उद्देश्य ही भ्रष्ट हो, तो वहाँ केवल कार्य नहीं होता, वहाँ आत्मा का प्रतिदिन हनन होता है। ऐसा सेवक स्वयं निर्णय नहीं कर सकता, उसका विवेक, उसकी आत्मा, सब कुछ उस कुनृप के अधीन हो जाता है, जो स्वयं ही अज्ञान, अभिमान या अन्याय से आविष्ट है। इस स्थिति में सेवा करना अपने ही हाथों अपने जीवनमूल्यों को नष्ट करना है। व्यक्ति अपने कर्तव्य और स्वाभिमान के मध्य संघर्ष करता है, और अन्ततः वह या तो अपने स्वत्व को गँवा बैठता है, या बाह्यतः सुरक्षित प्रतीत होते हुए भी आन्तरिक रूप से समाप्त हो जाता है।
दारिद्र्यभावात् विमुखं मित्रम् — मित्रता की परीक्षा उस समय होती है जब जीवन से समृद्धि, वैभव और अभावों का संतुलन बिगड़ जाता है। जिस क्षण निर्धनता आती है, और तथाकथित मित्र पीठ फेर लेते हैं, तब यह स्पष्ट होता है कि वे मित्रता नहीं, स्वार्थ के साझेदार थे। जब एक व्यक्ति की समृद्धि उसके सम्बन्धों की शर्त बन जाती है, तब वह मित्रता केवल सौदा बन जाती है। ऐसे समय विमुख हुआ मित्र, एक सामाजिक धोखा है — वह न केवल त्याग करता है, बल्कि यह भी सिद्ध करता है कि उसका सम्बन्ध आत्मीय नहीं, लाभान्वित था। यहाँ मित्र के विमुख होने से अधिक, उस विश्वास का टूटना घातक है, जिससे जीवन में सम्बन्धों की नींव रखी जाती है। यह टूटन विश्वास के आधार को ही नष्ट करती है, और व्यक्ति अन्ततः सम्बन्धों के प्रति निष्ठाहीन या निराशावादी बन सकता है।
उपरोक्त पाँच परिस्थितियाँ केवल जीवन की कठिनाइयाँ नहीं हैं; ये पाँच प्रकार की अग्नियाँ हैं, जो शरीर को केवल जला नहीं देतीं, बल्कि चेतना तक को दग्ध कर देती हैं। इनमें से प्रत्येक — प्रेमवियोग, आत्मीयों का अपमान, अधूरा ऋण, अधम की सेवा, और स्वार्थी मित्र — मानसिक, भावनात्मक, नैतिक और आध्यात्मिक स्तर पर व्यक्ति को भीतर से नष्ट करती हैं। वे दृश्य नहीं होतीं, परन्तु उनका दाह सूक्ष्मतम् रूप में निरन्तर चलता रहता है।
इन पाँचों में एक सांझा तत्त्व यह है कि वे सभी अत्यन्त समीपस्थ सम्बन्धों से उत्पन्न होती हैं — प्रेम, परिवार, ऋण, शासन और मित्रता। यह संकेत करता है कि जीवन में जो सबसे निकट होते हैं, वही यदि असंतुलित, अधूरे, या कलुषित हों, तो वे सुख का नहीं, पीड़ा का कारण बनते हैं। व्यक्ति का सर्वाधिक विनाश, बाहर से नहीं, भीतर से, अपने ही सम्बन्धों के माध्यम से होता है। जैसे अग्नि भीतर दहकती है पर बाहर कभी-कभी ही दिखाई देती है, वैसे ही ये पाँच पीड़ाएँ भीतर ही भीतर व्यक्ति को जला देती हैं — बिना किसी स्पष्ट चिन्ह के, किन्तु अत्यन्त प्रभावशाली रूप से।
विचारणीय यह है कि इनमें से कोई भी पीड़ा एकाएक नहीं आती। वे धीरे-धीरे जन्म लेती हैं — जैसे प्रेम धीरे-धीरे विछोह में बदलता है, विश्वास धीरे-धीरे अपमान में रूपान्तरित होता है, ऋण धीरे-धीरे असहनीय भार बनता है, सेवा धीरे-धीरे आत्मघात बनती है, और मित्रता धीरे-धीरे छलाव में परिणत होती है। इन सबकी जड़ें आश्रय में हैं — जब मनुष्य उन पर भरोसा करता है जो या तो स्थायी नहीं हैं, या स्वार्थपरक हैं।
यह भी स्पष्ट होता है कि इन पाँचों में से कोई भी एक, सम्पूर्ण जीवन को अस्त-व्यस्त करने के लिए पर्याप्त है। किन्तु यदि सभी या कई एकसाथ उपस्थित हों, तो वह दाह केवल मानसिक नहीं, शारीरिक भी हो सकता है — व्यक्ति रोगग्रस्त हो सकता है, अवसाद में जा सकता है, या जीवन के प्रति उदासीन हो सकता है। यह अग्नि केवल प्रतीक नहीं, एक यथार्थ है — जीवन में सजीव, गहन, और क्रूर यथार्थ।
ऐसे में प्रश्न यह उठता है: मनुष्य क्या करे? प्रेम न करे? मित्रता से बचे? ऋण न ले? परिवार से दूरी बना ले? उत्तर नकारात्मक नहीं हो सकता। समाधान पलायन में नहीं, सचेतता में है। वह प्रेम जिसमें आत्मनिर्भरता हो, वह मित्रता जो परीक्षा में खरी उतरे, वह ऋण जो विवेक से लिया जाए, वह सेवा जो न्यायोचित व्यक्ति के अधीन हो, और वह परिवार जिसमें सम्मान हो — यही रक्षा बन सकते हैं इस अग्नि से।
शरीर को अग्नि से बचाना सम्भव है — जल, शीतलता, और छाया के माध्यम से। परन्तु इन पाँच सूक्ष्म अग्नियों से बचाव केवल विवेक, संयम, सत्यपरक सम्बन्ध और आत्मावलोकन से ही सम्भव है।
जीवन की दग्धता तब समाप्त होती है जब मनुष्य अनुपात और संतुलन में जीना सीखता है — न अंधभक्ति, न अंधविश्वास, न अंधप्रेम। केवल वह जीवन जो सचेत और संयमित है, इन अग्नियों को दीपक की लौ में बदल सकता है — जो जलाए नहीं, प्रकाश दे।