समाज की संरचना में विविध वर्गों की भिन्न भूमिकाएँ होती हैं, और प्रत्येक वर्ग की सामर्थ्य उसकी स्वाभाविक प्रकृति, सामाजिक स्थान तथा दायित्वों के अनुरूप होती है। यह विवेचन सत्ता, ज्ञान, सम्पत्ति एवं श्रम के विभिन्न रूपों को उनके धारकों से जोड़ता है, जिससे स्पष्ट होता है कि सामाजिक व्यवस्था न तो समरूप है, न ही सर्वथा न्याय-सिद्ध; अपितु एक ऐसी प्रणाली है जो शक्तियों के विभाजन और सीमाओं के अधीन कार्य करती है।
ब्राह्मण का बल विद्या है—यह कथन न केवल ज्ञान की उच्चता को रेखांकित करता है, अपितु इस तथ्य को भी उजागर करता है कि कुछ वर्गों की शक्ति भौतिक संसाधनों पर आधारित नहीं होती, बल्कि बौद्धिक नियन्त्रण पर टिकी होती है। विद्या के माध्यम से नीति, धर्म, समाज व संस्कृति का नियंत्रण सम्भव होता है। शिक्षित वर्ग का प्रभावी होना, अन्य वर्गों के संसाधनों के ऊपर विचारमूलक अधिकार प्राप्त करने जैसा है। ज्ञान के बल से ही मनुष्य नेतृत्व करता है, परामर्श देता है, दिशा तय करता है। यह बल अपारदर्शी होते हुए भी अत्यंत प्रभावकारी है, क्योंकि यह अन्य बलों को मार्ग देता है।
शासन के स्तर पर राजा की शक्ति प्रत्यक्ष है—उसका बल सैन्यशक्ति है। यह बल नियंत्रण, दमन, और बाह्य अथवा आन्तरिक विरोध का उत्तर देने के लिये आवश्यक होता है। सैन्यबल न केवल राज्य की रक्षा करता है, बल्कि उसका आक्रामक स्वरूप भी शक्ति-प्रदर्शन का साधन होता है। यह बल भौतिक रूप से भय की रचना करता है, और शासक की सत्ता को स्थायित्व प्रदान करता है। किंतु सैन्यबल की स्वायत्तता सीमित है—उसे दिशा, औचित्य और लक्ष्य की आवश्यकता होती है, जो ज्ञानबल से आता है। यदि सैन्यबल ज्ञानविहीन हो, तो वह क्रूरता बन सकता है; यदि ज्ञानबल सैन्यविहीन हो, तो वह केवल विचारशून्य तत्त्वज्ञान रह जाता है।
वैश्य वर्ग की शक्ति आर्थिक है—वित्त। यह शक्ति न तो ज्ञान के समान अमूर्त है, न ही सैन्यबल के समान प्रत्यक्ष हिंसात्मक; परन्तु इसका प्रभाव सामाजिक संरचना में सर्वव्यापी होता है। वित्त का बल आर्थिक संसाधनों के वितरण को नियंत्रित करता है—उत्पादन, विनिमय, और उपभोग तीनों स्तरों पर इसका वर्चस्व है। पूँजी की शक्ति इस दृष्टि से सर्वाधिक व्यावहारिक है कि यह अन्य बलों को भी प्रभावित कर सकती है: विद्या को क्रय किया जा सकता है, सैन्यबल को पोषित किया जा सकता है। वित्तीय बल में एक प्रकार की चपलता होती है, जिससे यह प्रत्येक वर्ग के कार्य-प्रणाली में हस्तक्षेप कर सकता है। व्यापार की सफलता, राज्य की स्थिरता तथा सांस्कृतिक पोषण—सभी वित्तीय तंत्र से बंधे हुए हैं। इस प्रकार, आर्थिक शक्ति अदृश्य शासन की भाँति कार्य करती है।
शूद्र वर्ग की शक्ति श्रम में निहित है—पारिचर्यकर्म। यह शक्ति समर्पण, स्थिरता, और सतत श्रम के माध्यम से समाज की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करती है। यह शक्ति परिभाषित की जाती है 'बल' के रूप में नहीं, अपितु सेवा के रूप में—इसमें हिंसा नहीं है, परिश्रम है; इसमें प्रभुत्व नहीं है, पर निर्भरता है। तथापि, यही वह शक्ति है, जो अन्य सभी शक्तियों को मूर्तरूप देती है। बिना श्रमिक के ज्ञान उपयोगी नहीं; बिना निर्माण के सेना अपूर्ण; बिना उत्पादन के वित्त निरर्थक। पारिचर्यकर्म का मूल्यांकन केवल उसकी अधीनता से नहीं, उसकी अपरिहार्यता से होना चाहिए। यही वर्ग वह आधारभूमि है जिस पर समस्त सामाजिक शक्ति टिकी होती है। यदि इसे हटाया जाए, तो ज्ञान, सैन्यबल व वित्त—सभी अंदर ही अंदर ढह जाते हैं, खुद को संभाल पाने में असमर्थ हो जाते हैं।
इन चार प्रकार की शक्तियों का पृथक्करण, वास्तविकता के एक गहरे पक्ष की ओर संकेत करता है—कि शक्ति स्वाभाविक नहीं होती, अपितु सामाजिक रूप से निर्धारित होती है। ब्राह्मण का बल विद्या है, किन्तु यह विद्या उसे जन्म से नहीं प्राप्त होती—यह प्राप्त की जाती है; परन्तु सामाजिक व्यवस्था इस तथ्य को स्थायित्व देने के लिये जन्माधारित संरचना को स्थापित करती है। यही बात अन्य तीन वर्गों पर भी लागू होती है। शक्ति का स्वरूप, उसके सन्दर्भ और अभिप्राय—ये सब सामाजिक संरचना द्वारा निर्मित, पोषित और परिमित किये जाते हैं।
जब ज्ञान, सेना, सम्पत्ति और श्रम को उनके निर्धारित 'वर्गों' के भीतर सीमित कर दिया जाता है, तब यह भी एक प्रकार की शक्ति-राजनीति का रूप ले लेता है। यह न केवल सामाजिक गतिशीलता को प्रतिबन्धित करता है, बल्कि यह सुनिश्चित करता है कि एक वर्ग अपने क्षेत्र के बाहर न जा सके। इस प्रकार की शक्ति-व्यवस्था को बनाए रखने हेतु धार्मिक, नैतिक और राजनीतिक औचित्य निर्मित किये जाते हैं। ज्ञान को पवित्र कहा जाता है, सैनिक को राज्यरक्षक, व्यापारी को सम्पत्ति-निर्माता, और श्रमिक को सेवक—इन परिभाषाओं में ही वह सत्ता छिपी होती है जो इन वर्गों की सीमाओं को 'स्वाभाविक' और अपरिहार्य बनाती है।
यदि इस संरचना को दार्शनिक दृष्टि से देखा जाए, तो यह स्पष्ट होता है कि शक्तियाँ कभी समान रूप से वितरित नहीं होतीं। बल का अर्थ केवल शारीरिक सामर्थ्य नहीं, अपितु नियन्त्रण, प्रभाव और क्रिया की सम्भावना है। ज्ञान वह बल है जो बिना तलवार चलाए शासन करता है; सेना वह बल है जो बिना तर्क के आदेश देती है; वित्त वह बल है जो बिना उपदेश के चुपचाप दुनिया की दिशा तय करता है; श्रम वह बल है जो बिना प्रतिरोध के सबकुछ सम्भव करता है। इन सभी बलों की एक-दूसरे पर निर्भरता दर्शाती है कि कोई भी शक्ति पूर्णतः स्वतन्त्र नहीं है, और न ही स्थायी।
जब शक्ति को श्रेणीबद्ध कर दिया जाता है, तब प्रश्न यह नहीं होता कि कौन अधिक शक्तिशाली है, अपितु यह होता है कि कौन किसके अधीन है, और किसे किसकी आवश्यकता है। इस परिप्रेक्ष्य में, यह विचार भी उत्पन्न होता है कि क्या शक्ति एक नैतिक अवधारणा है, या केवल एक सामाजिक यंत्रणा? क्या विद्या तभी बल है जब वह वर्चस्व बन जाए? क्या सेना तभी बल है जब वह नियंत्रण करे? क्या सम्पत्ति तभी बल है जब वह संचय हो? क्या सेवा तभी बल है जब वह मौन स्वीकार्यता में बद्ध हो?
यह विभाजन शक्ति की प्रकृति को बहुस्तरीय बनाता है। एक ही समाज में चार प्रकार की शक्तियाँ विद्यमान हैं, जो परस्पर विरोधी नहीं, परस्पर पूरक हैं; परन्तु यह पूरकता स्वतन्त्रता का प्रतीक नहीं, अपितु परनिर्भरता का संकेत देती है। और परनिर्भरता, यदि समतुल्य नहीं हो, तो शोषण में परिणत हो सकती है। ज्ञान यदि सत्ता से जुड़ जाए, तो वह जनता पर बौद्धिक नियंत्रण स्थापित करता है; सेना यदि सत्ता का माध्यम बन जाए, तो भय का शासन स्थापित करती है; सम्पत्ति यदि नैतिकता से मुक्त हो जाए, तो यह लालच और विषमता को जन्म देती है; श्रम यदि अपने अधिकारों से वंचित हो, तो केवल उपभोग्य बन जाता है।
विचारणीय यह है कि क्या शक्ति का यह विभाजन अपरिवर्तनीय है? यदि नहीं, तो क्या यह सम्भव है कि एक व्यक्ति में विद्या, सैन्यबल, वित्त एवं श्रम—all चार एक साथ विद्यमान हों? और यदि ऐसा सम्भव है, तो क्या समाज की वर्ग-आधारित संरचना अर्थहीन नहीं हो जाती? या फिर यह विभाजन इसलिये आवश्यक है कि समाज में कार्य-विभाजन बना रहे? इन प्रश्नों के उत्तर कोई भी हो सकते हैं, परन्तु यह तथ्य अपरिवर्तनीय रहता है कि शक्ति, चाहे वह किसी भी रूप में हो, जब वर्गगत सीमाओं में बंद हो जाती है, तो वह अपने नैतिक दायित्व से दूर जा सकती है।
अन्ततः, यह विचार प्रेरित करता है कि बल की प्रत्येक परिभाषा, चाहे वह विद्या हो, सैन्यबल हो, वित्त हो या श्रम, केवल उसी समय समाजोपयोगी बनती है जब वह अपने उद्देश्यों की पारदर्शिता बनाए रखे और अन्य शक्तियों के प्रति उत्तरदायी बनी रहे। अन्यथा, कोई भी शक्ति, जब निरंकुश हो जाती है, तब वही समाज के विघटन का कारण बन सकती है।