तस्मात्पुत्रं च शिष्यं च ताडयेन्न तु लालयेत् ॥ ॥०२-१२॥
शिक्षा और पालन-पोषण का मूल उद्देश्य केवल सुविधा या आनंद देना नहीं, बल्कि ऐसा व्यक्तित्व निर्माण करना है जो आत्मसंयम, अनुशासन, और उत्तरदायित्व से युक्त हो। जब बच्चों या शिष्यों को अत्यधिक लाड़-प्यार दिया जाता है, तब वे अनुशासनहीन, अहंकारी और अधिकारप्रिय बन सकते हैं। यह लालन-पालन की एक सामान्य लेकिन गंभीर भूल है जो दीर्घकालिक रूप से चरित्र निर्माण को क्षति पहुँचाती है।
लाड़-प्यार के कारण उत्पन्न दोष बहुस्तरीय होते हैं—स्वभाव में असहिष्णुता, अधैर्य, तात्कालिक सुख की आदत, आलोचना न सह पाने की प्रवृत्ति, और आत्मविवेक की कमी। जब कोई व्यक्ति बचपन से हर बात में छूट और प्रोत्साहन पाता है, तब वह संघर्ष और असहमति के प्रति असंवेदनशील बनता है। ऐसे व्यक्ति समाज में या अपने निजी जीवन में टकरावों का सामना करने की क्षमता नहीं रखते और शीघ्र ही मानसिक या नैतिक रूप से टूट जाते हैं।
इसके विपरीत, ताड़ना—यहाँ इसका आशय केवल शारीरिक दंड नहीं बल्कि अनुशासनात्मक हस्तक्षेप और दिशा-निर्देशन से है—चरित्र में ठोसता, आत्मनियंत्रण, और विवेक का विकास करती है। एक शिष्य या पुत्र जिसे समय पर सीमाओं का बोध कराया गया हो, जो अनुचित व्यवहार के परिणाम को समझता हो, वह दीर्घकाल में अधिक सशक्त, संतुलित और उत्तरदायी बनता है।
अनुशासन की अनुपस्थिति में, स्वतंत्रता स्वेच्छाचार में बदल जाती है। यह समझना आवश्यक है कि प्रेम और अनुशासन एक-दूसरे के विरोधी नहीं, बल्कि पूरक हैं। अनुशासनहीन प्रेम अविवेक और आत्मविनाश की ओर ले जाता है, जबकि विवेकपूर्ण अनुशासन प्रेम की ही परिष्कृत अभिव्यक्ति है। एक गुरु या माता-पिता का कर्तव्य केवल संरक्षण देना नहीं, बल्कि सही दिशा में ढालना भी है—even if that means being strict when required.
ताड़ना का उद्देश्य भय उत्पन्न करना नहीं, बल्कि आत्म-जागरूकता और उत्तरदायित्व की चेतना को विकसित करना है। यदि यह प्रक्रिया प्रेम और न्याय की भावना के साथ की जाए, तो यह व्यक्ति को केवल शारीरिक ही नहीं, मानसिक और नैतिक रूप से भी पुष्ट करती है। बच्चों और शिष्यों को जीवन के प्रारंभिक वर्षों में मिलने वाला यह संतुलन उनके समग्र विकास की नींव बनता है।