श्लोक ०२-११

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
माता शत्रुः पिता वैरी याभ्यां बाला न पाठिताः ।
सभामध्ये न शोभन्ते हंसमध्ये बको यथा ॥ ॥०२-११॥
माता शत्रु के समान और पिता वैरी है जिन्होंने अपने बच्चों को शिक्षा नहीं दी। ऐसे बच्चे सभा में वैसे ही अशोभनीय होते हैं जैसे हंसों के बीच बगुला।

शिक्षा का अभाव केवल व्यक्ति की व्यक्तिगत प्रगति को नहीं रोकता, वह पूरे परिवार और समाज के लिए भी कलंक बन सकता है। जब माता-पिता अपने बच्चों को शिक्षा से वंचित रखते हैं, तो यह केवल एक अवसर की हानि नहीं होती — यह एक नैतिक अपराध बन जाता है। क्योंकि बच्चे स्वयं यह निर्णय नहीं ले सकते कि वे शिक्षित हों या नहीं; उनके प्रारंभिक जीवन के निर्णय माता-पिता द्वारा ही संचालित होते हैं। यदि वे उस उत्तरदायित्व से विमुख होते हैं, तो वे वस्तुतः शत्रु और वैरी की भूमिका निभाते हैं, भले ही उनके मन में प्रेम क्यों न हो।

माता-पिता का कर्तव्य केवल भरण-पोषण तक सीमित नहीं है। वे यदि शिक्षा की व्यवस्था नहीं करते, तो वे संतान के मानसिक, सामाजिक, और नैतिक विकास की हत्या करते हैं। एक अशिक्षित बालक का समाज में स्थान वैसा ही होता है जैसा कि बगुले का हंसों के बीच — उपस्थिति तो होती है, पर गरिमा नहीं। बगुला हंसों जैसा दिखाई तो दे सकता है, पर उसमें हंसों जैसी अंतर्निहित शुद्धता, बौद्धिक गरिमा और सांस्कृतिक विवेक नहीं होता। ऐसे ही अशिक्षित व्यक्ति दिखावटी रूप से सभाओं का भाग हो सकते हैं, पर उनमें विचार की वह क्षमता नहीं होती जो उन्हें सम्मान दिला सके।

सभाओं में या सार्वजनिक जीवन में भाग लेने की योग्यता केवल बाह्य स्वरूप से नहीं आती, वह आती है ज्ञान, भाषा, विवेक और शास्त्रज्ञता से। जो संतान इस आंतरिक पूंजी से वंचित है, वह सभ्यता के मंच पर उपस्थित होकर भी अनुपस्थित ही रहती है। वह न तो संवाद कर पाती है, न विचार प्रस्तुत कर पाती है, न ही सम्मान प्राप्त कर सकती है। उसका मौन या असंगत बोलना उसकी ही नहीं, माता-पिता की भी विफलता का प्रमाण बन जाता है।

अशिक्षित व्यक्ति की स्थिति विशेष रूप से उन संदर्भों में गंभीर हो जाती है जहाँ प्रतिभा, विचार और संस्कृति की प्रतिस्पर्धा होती है। वहाँ केवल उपस्थित रहना पर्याप्त नहीं होता — वहाँ विचार, वक्तृत्व और व्याकरण की परीक्षा होती है। ऐसे संदर्भों में अशिक्षित व्यक्ति हीनता, ग्लानि और उपहास का पात्र बनता है, और उसकी उपस्थिति स्वयं उस कुल की प्रतिष्ठा को धूमिल कर देती है जिससे वह संबंधित होता है।

इसलिए माता-पिता की यह नैतिक जिम्मेदारी है कि वे संतान को शिक्षा दें — केवल औपचारिक नहीं, बल्कि संपूर्ण: भाषा, शास्त्र, आचार और व्यवहार की शिक्षा। यदि वे ऐसा नहीं करते, तो वे संतान की आत्मा को हीनता में धकेलते हैं और समाज में उसकी उपस्थिति को मूल्यहीन बना देते हैं। वे एक ऐसे बगुले को जन्म देते हैं जिसे हंसों के बीच छोड़ दिया गया हो — दिखता तो है, पर असंगत, उपहासास्पद और अनुपयुक्त।

यह दृष्टिकोण स्पष्ट करता है कि शिक्षा केवल अधिकार नहीं, कर्तव्य है — विशेषतः माता-पिता का। उनके द्वारा दी गई शिक्षा ही संतान को समाज में गरिमा, आत्मविश्वास और नेतृत्व प्रदान करती है। इसके बिना, न केवल संतान, बल्कि स्वयं माता-पिता भी नैतिक दायित्व से च्युत होकर समाज के न्याय के कटघरे में खड़े होते हैं।