श्लोक ०२-१०

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
पुत्राश्च विविधैः शीलैर्नियोज्याः सततं बुधैः ।
नीतिज्ञाः शीलसम्पन्ना भवन्ति कुलपूजिताः ॥ ॥०२-१०॥
संतान जिन्हें बुद्धिमान और नीति-ज्ञानी पुरुष विभिन्न प्रकार के आचारों और संस्कारों से सतत् नियोजित करते हैं, वे नीतिवान और आचार-संपन्न बनकर कुल में सम्मानित होते हैं।

व्यक्ति का मूल चरित्र उसके पालन-पोषण, शिक्षा और संस्कारों के समुचित प्रवाह से निर्मित होता है। इस प्रक्रिया में सतत् और विविध शीलों का अभ्यास अत्यंत आवश्यक है। शील अर्थात् न केवल आचरण के नियम, बल्कि व्यक्ति के मनोवृत्ति, नैतिकता, और सामाजिक कर्तव्य की अभिव्यक्ति हैं। जब पुत्रों को बुद्धिमान पुरुषों द्वारा सतत् रूप से विभिन्न गुणों और शीलों से परिचित कराया जाता है, तो उनमें न केवल नीति का ज्ञान विकसित होता है बल्कि व्यवहार में अनुशासन और सदाचार भी सशक्त बनते हैं।

नीति का साक्षात् अर्थ है जीवन के कठिन और जटिल निर्णयों में न्यायसंगत और युक्तिपूर्ण निर्णय लेना। यह ज्ञान केवल पुस्तकों या सिद्धांतों तक सीमित नहीं, बल्कि व्यवहार में उसे उतारने का नाम है। नीति-ज्ञाता वे होते हैं जो जीवन की परिस्थितियों के अनुसार उचित निर्णय कर सकते हैं, जिसके लिए गुणों और शीलों का मिश्रण आवश्यक होता है। अतः बुद्धिमान पुरुषों द्वारा पुत्रों का निरंतर मार्गदर्शन उन्हें सही मार्ग पर स्थिर करता है।

सतत् अनुशासन, शिक्षा और नैतिक संस्कारों के अभाव में बच्चों में अनेक प्रकार की अनैतिक प्रवृत्तियाँ उत्पन्न हो सकती हैं, जो उनके व्यक्तिगत विकास के साथ-साथ कुल और समाज के लिए भी नुकसानदायक होती हैं। बिना शील और नीति के व्यक्ति समाज में प्रतिष्ठा नहीं प्राप्त कर पाता, और उसका कुल भी अपमानित होता है। इसलिए कुल की प्रतिष्ठा में पुत्रों की भूमिका निर्णायक होती है, क्योंकि वे कुल की पहचान, उसकी मर्यादा और गौरव का वाहक होते हैं।

विविध शीलों का अभ्यस्त होना, जैसे सत्यनिष्ठा, संयम, परोपकार, धैर्य, सामाजिक दायित्वों की समझ, और कर्तव्यपरायणता, बच्चों को व्यवहारिक बुद्धि से परिपूर्ण करता है। यह व्यवहारिक बुद्धि नीति के साक्षात् स्वरूप को समझने और अपनाने में सहायक होती है। कुल में सदाचार और नीति का संरक्षण पुत्रों के माध्यम से ही संभव है, जो परिवार के लिए गौरव और सामाजिक स्तर पर सम्मान का कारण बनता है।

इस दृष्टि से, केवल जन्मजात अधिकारों और वंश परंपरा के भरोसे कुल की प्रतिष्ठा नहीं टिकती, बल्कि नीति-ज्ञान और शील से युक्त व्यवहार से ही वह स्थिर और सुदृढ़ होती है। कुल के सभी सदस्य विशेषकर पुत्रों की जिम्मेदारी बनती है कि वे सतत् रूप से बुद्धिमान व्यक्तियों से सीखते रहें, ताकि वे जीवन में नैतिकता और नीति का पालन कर सकें। यह अभ्यास उन्हें न केवल व्यक्तिगत सफलता दिलाता है बल्कि पूरे परिवार की सामाजिक प्रतिष्ठा और सम्मान का आधार बनता है।

नीति-ज्ञानी और शील-संपन्न पुत्रों का समाज और परिवार में होना, उस समाज की स्थिरता, नैतिकता और समृद्धि का सूचक होता है। क्योंकि वे अपने कर्मों और आचरण द्वारा जीवन के सभी क्षेत्रो में उदाहरण प्रस्तुत करते हैं, जो आने वाली पीढ़ियों के लिए मार्गदर्शक सिद्ध होता है। इस प्रकार, सतत् शिक्षण, अनुशासन और नैतिक संस्कारों का महत्व जीवन और कुल दोनों के लिए अपरिहार्य और अनिवार्य है।