आयुष्यं हरते भर्तुः सा नारी नरकं व्रजेत् ॥ १७-०९॥
स्त्री और पति के संबंध में आज्ञापालन की महत्ता अत्यंत प्राचीन धार्मिक एवं सामाजिक मान्यताओं में निहित है। भारतीय सामाजिक-सांस्कृतिक परंपरा में पति की आज्ञा का पालन, विशेषतः गृहस्थाश्रम के संदर्भ में, पत्नी के कर्तव्यों में प्रमुख माना गया है। यहाँ 'व्रतचारिणी' शब्द से तात्पर्य है वह स्त्री जो धार्मिक नियमों, व्रतों का पालन करती है। परंतु जब वह पति की आज्ञा का उल्लंघन करती है, तब उसका धर्मपालन भी अधूरा या असंगत माना जाता है।
पति की आज्ञा का उल्लंघन एक प्रकार से गृहस्थधर्म की अवहेलना है, जिससे पारिवारिक व्यवस्था और सामाजिक समरसता प्रभावित होती है। आयु में कमी का उल्लेख यहाँ प्रतीकात्मक है, जो पति के जीवनकाल या समृद्धि में हानि को दर्शाता है। इसे कर्म सिद्धांत के परिप्रेक्ष्य में भी समझा जा सकता है, जहाँ पारस्परिक कर्तव्यों का पालन न होने पर परिणामस्वरूप दंडात्मक प्रभाव आते हैं।
नरक प्राप्ति का सूचक यहाँ धर्म की अवज्ञा के परिणामस्वरूप होने वाली आत्मा की दंडात्मक स्थिति को इंगित करता है। सामाजिक और धार्मिक दृष्टिकोण से, पति की आज्ञा का पालन न करना न केवल पारिवारिक कलह का कारण बनता है, अपितु यह व्यक्ति के मोक्ष मार्ग में भी बाधा उत्पन्न करता है। यह श्लोक व्रत, कर्तव्यपालन, और पारिवारिक अनुशासन के प्रति एक गंभीर चेतावनी प्रस्तुत करता है।
धार्मिक ग्रंथों में यह भी बताया गया है कि परिवार की समृद्धि और सुख-शांति के लिए सद्भावना, सहिष्णुता और अनुशासन आवश्यक हैं। पत्नी का पति के प्रति सम्मान और आज्ञा पालन, वैवाहिक जीवन की स्थिरता का आधार मानी जाती है। इसका उल्लंघन जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में असंतुलन उत्पन्न करता है।
इस श्लोक का दार्शनिक आयाम यह भी हो सकता है कि समरसता और सामंजस्य के बिना व्रत, उपासना, या कोई भी धार्मिक कर्म पूर्ण फलदायी नहीं होते। विधिपूर्वक किए गए कर्तव्य और पारस्परिक संबंधों की कदर ही व्यक्ति के आध्यात्मिक और सांसारिक हितों की पूर्ति में सहायक होती है।